कई साल बाद बीएचयू परिसर में पहुंचा तो मैत्री जलपान
गृह का भवन देखकर यादों की अंगनाई में ढेर सारे दीप जल उठे। तमाम यादें उमडने
लगीं। क्यों न हों – करोगे याद तो हर बात याद आएगी, गुजरते हुए वक्त की हर मौज ठहर
जाएगी।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में सामाजिक
विज्ञान संकाय के चौराहे पर स्थित है मैत्री जलपान गृह। यह बीएचयू परिसर की एक
कैंटीन है। वैसे तो कैंपस में मेडिकल कॉलेज, सुंदरलाल अस्पताल और विश्वनाथ मंदिर
के पास एग्रो कैंटीन भी है। पर मैत्री जलपान गृह का परिसर प्यारा है और इसके साथ
हमारी अनगिनत यादें जुड़ी हैं।
हमारे समय में यहां खाने की
थाली एक रुपये 60 पैसे की मिलती थी। जब कभी हॉस्टल का मेस बंद होता तो हमलोग
मैत्री में खाने के लिए आ जाते। तब ये कैंटीन रात को और रविवार को बंद रहती थी। पर
आजकल रात को भी खुलने लगी है। खाने के अलावा चाय, समोसा, छोला भठूरा, पूरी सब्जी
आदि तो हमने मैत्री में बैठकर अनगिनत बार खाया होगा। इस जलपान गृह में दो डायनिंग
हॉल हैं। एक चाय नास्ते के लिए और एक खाना खाने वालों के लिए। हमारे जमाने में जो
भी खाना हो पहले कूपन लेना पडता था फिर खिड़की से अपना आर्डर जाकर खुद प्राप्त
करना।
एमए में आने के बाद जब सह
शिक्षा में पढ़ने लगे तो हमारी अक्सर मैत्री के टेबल पर पार्टियां होतीं। आज
राजनेता बने मनोज तिवारी हमसे दो साल सीनियर थे। एक बार उन्होने इतिहास विभाग के
कार्यक्रम में एक गाना गाया तो हमारे गुरु जी राजेश्वर पांडे ने खुश होकर 100
रुपये का नोट उन्हें इनाम में दिया। हमने कहा, भैया इस नोट पर हम सबका हक बनता है।
फिर वे पूरी क्लास को मैत्री में ले गए और पार्टी थी। फिर कैंटीन के टेबल पर हमने
एक बार फिर उनसे गीत सुना।
जहां तक मुझे याद है उस जमाने
में मैत्री से सस्ती खाने की थाली बनारस में कहीं नहीं मिलने वाली थी। हम कड़की के
दिनों में मैत्री के खाने से काम चलाते। हालांकि खाने की थाली फिक्स थी, पर काउंटर
जाकर दुबारा मांगने पर दाल या सब्जी दे दिया करते थे।
एमए की कक्षाओं के दिन थे।
हमारे एक साथी पूरी क्लास को खास तौर पर लड़कियों को पार्टी देने को व्यग्र थे।
मैं उनका नाम नहीं लूंगा। बस मैंने क्लास में खड़े होकर घोषणा कर दी.. अमुक का आज जन्मदिन
वे पार्टी देना चाहते हैं। तो पूरी क्लास को मैत्री में आमंत्रण है। उस दिन क्लास में
30 लड़कियां और 30 लड़के रहे होंगे। पार्टी यादगार रही। पर वह एक झूठे जन्मदिन की पार्टी
थी, ये सिर्फ मैं और वे ही जानते थे जिनकी जेब से पैसा निकला।
वे दिन थे जब हमारी हशरतें जवां
थीं। मन में उमंगे थीं। कुछ चेहरे अच्छे लगते थे। पर हम उन्हें कभी खुल कर कुछ कह
नहीं पाते थे। बस कैंटीन में चाय समोसा और कोल्डड्रिंक तक ही बात रुक जाती थी।
कभी तो तेरा मयखाना याद आए बहुत
की एक बूंद न पी और लड़खड़ाए
बहुत
किताबे दिल को पानी में फेंक आए
थे
तेरे दिए हुए कुछ फूल याद आए
बहुत
वह दिसंबर 1994 की चटकीली दोपहर
थी। मेरा जन्मदिन था। कुछ दोस्तों को पता चल गया। चलो मैत्री में चलते हैं। छोटी सी पार्टी करते हैं। इस पार्टी के
बाद हमारी एक मित्र ने मुझे सफेद गुलाब भेंट किया। हां, वह लाल गुलाब दे भी नहीं
सकती थी। लाल गुलाब की इच्छा तो किसी और से थी जिससे मिला नहीं। पर जिंदगी ऐसी ही
होती है। हमेशा वैसी नहीं चलती जैसा आप सोचते हैं। खुशियों पर आपका अधिकार नहीं होता।
पर आंसू तो आपके अपने होते हैं। मैत्री जलपान गृह की दरो-दीवार को देखकर आंखे भर
आईं।
दिल ही तो है न संगो खिश्त,
दर्द से भर न आए क्यूं
रोएंगे हम हजार बार, आखिर कोई
हमें रूलाए क्यूं
- विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com
( RANG BANARAS, BHU DAYS, MAITRI JALPAN GRIH)
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बीएचयू के मधुबन में बनी कलाकृति। |
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