बनारस का करीब चौरा। इस चौराहे के कबीर की स्मृतियां जुड़ी हैं। मैदागिन से आने वाली सड़क का नाम भी संत कबीर मार्ग है। पर यहां रहते थे महान तबला वादक सामता प्रसाद उर्फ गोदई महाराज। मैंने उन्हें कभी लाइव तबला बजाते तो नहीं सुना। पर उनके बेटे कुमार लाल मिश्र को वैशाली महोत्सव में 1990 में तबला बजाते देखा और सुना था। उनकी वेशभूषा और दिव्य आभा वाली इमेज देखकर मैं प्रभावित था। वैशाली महोत्सव के उदघोषक ने उनका परिचय दिया – कुमार लाल गोदई महाराज के बेटे हैं। कहा जाता है गोदई महाराज जब सुबह सुबह कबीर चौरा पर रियाज करते थे तो उनके तबले की आवाज चार किलोमीटर दूर तक जाती थी। वैशाली महोत्सव में कुमार लाल ने सोलो तबला और जुगलबंदी भी बजाई। ये सब बातें लंबे समय तक याद रहीं।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान में आकाशवाणी वाराणसी में युववाणी प्रभाग मे कार्यक्रम देने जाया करता था। वहीं एक बार कुमार लाल मिश्र मिल गए। मैंने उन्हें वैशाली महोत्सव वाली बातें याद दिलाई। उनका नंबर लिया। साल 1996 में एक बार उनसे बात करके कबीरचौरा स्थित उनके घर जा पहुंचा। उनका साक्षात्कार करने कुबेर टाइम्स के लिए। छोटी बहन ऋतंभरा भी हमारे साथ जो उन दिनों बीएचयू से एलएलबी कर रही थी।
तो ये गोदई महाराज का घर है। यहीं पर सुबह-सुबह बैठकर वे रियाज किया करते थे। आसपास के बुजुर्ग लोग इस रियाज के साक्षी रहे हैं।
पंडित सामता प्रसाद उर्फ गुदई महाराज का जन्म 20 जुलाई, 1921 को वाराणसी में हुआ था। उनके परिवार में संगीत साधना कई पीढ़ियों से चली आ रही थी। उनके पिता का नाम पंडित हरि सुंदर था। वे बच्चा महाराज के नाम से जाने जाते थे। उनके दादा जगन्नाथ मिश्र भी संगीत साधक थे। इस परिवार में संगीत की शुरुआत प्रताप महाराज से होती है। बनारस घराने से जुड़ा हुआ यह प्रमुख संगीत साधक परिवार है। सन 1942 में प्रयाग संगीत सम्मेलन में गोदई महाराज ने पहली बार किसी सार्वजनिक मंच पर तबला बजाया तो उसकी संगीत मर्मज्ञों के बीच काफी तारीफ हुई। गोदई महाराज का निधन 31 मई 1994 को हुआ। हालांकि मैं 1990 से 1995 तक वाराणसी में ही रहा पर यह संयोग रहा कि मुझे उन्हें लाइव सुनने का सौभाग्य नहीं मिल पाया।

शोले में आप उनके तबले का चमत्कार कई जगह देख सकते हैं। इस फिल्म में सुनाई देने वाली घोड़े की टाप की आवाज गुदई महाराज का तबला है। जब बसंती डाकूओं से बचने के लिए अपने धन्नो को भागने के लिए कहती है, वह दृश्य याद करें। वास्तव में गोदई महाराज की उंगलियां तबले पर चमत्कार करती थीं। हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार राहुल देव बर्मन उनके ही शिष्य थे।
दुनिया के देशों में प्रसिद्ध मंचों पर तबला बजा चुके पंडित सामता प्रसाद को भारत सरकार ने सन 1972 में ‘पद्मश्री’ से नवाजा था। साल 1979 में उन्हें ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ और 1991 में कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया था।
जालंधर के संगीत के प्रोफेसर अरुण मिश्रा बताते हैं कि गुदई महाराज ने तबला को जितना लोकप्रिय बनाया उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। कन्हौली के चुनमुन शुक्ला ने एक बार मुझे संस्मरण सुनाया था। सोनपुर में बाबा रामलखन दास के मठ में हर साल सात अगस्त को होने वाले शास्त्रीय संगीत समारोह में नृत्यांगना सितारा देवी और गोदई महाराज के बीच होड़ लगी थी। सितारा देवी ने कहा कि मैं पांव के घुंघरू से जो धुन निकालूंगी आपको तबले पर वही बजाना होगा। मुकाबला बड़ा चुनौतीभरा और रोचक रहा। लंबा चला। इसमें कौन जीता कौन हारा मुझे याद नहीं। पर इस घटना को संगीत रसिक खूब याद करते हैं।
गोदई महाराज के बेटे कुमार लाल मिश्र जी के साथ उनकी बैठक में लंबी बातचीत हुई। उसी जगह पर जहां बैठकर भी गोदई महाराज रियाज किया करते थे। तो उस बातचीत का एक छोटा सा अंश -

आपका बचपन किन परिस्थितियों में गुजरा...
बचपन वैसे घर में गुजरा जहां सात पीढ़ियों से तबला वादन की परंपरा चली आ रही थी। हमारे घर को साक्षात मां दुर्गा का आशीर्वाद प्राप्त है। मैं जब छह माह का था मां का देहांत हो गया। दादी ने पाला पोसा। मेरा नाम ही कुमार रखा गया। मेरे जन्मोत्सव पर कंठे महाराज ( किशन महाराज के पिता ) ने लगातार छह घंटे तक तबला बजाया था। मेरे दादा प्रताप महाराज भी प्रसिद्ध तबला वादक थे। पिताजी अक्सर कार्यक्रम के सिलसिले में घर से बाहर ही रहते थे।
बचपन वैसे घर में गुजरा जहां सात पीढ़ियों से तबला वादन की परंपरा चली आ रही थी। हमारे घर को साक्षात मां दुर्गा का आशीर्वाद प्राप्त है। मैं जब छह माह का था मां का देहांत हो गया। दादी ने पाला पोसा। मेरा नाम ही कुमार रखा गया। मेरे जन्मोत्सव पर कंठे महाराज ( किशन महाराज के पिता ) ने लगातार छह घंटे तक तबला बजाया था। मेरे दादा प्रताप महाराज भी प्रसिद्ध तबला वादक थे। पिताजी अक्सर कार्यक्रम के सिलसिले में घर से बाहर ही रहते थे।
शिक्षा दीक्षा कब कैसे आरंभ हुई...
मुझे कुछ सोचने का अवसर नहीं मिला। छह साल का था तब मुझे तबला पकड़ा दिया गया। मेरा सौभाग्य रहा है कि बचपन में घर में विलायत खां, सितारा देवी, गोपीकृष्ण , विनायक राव पटवर्धन आदि को सुनने का मौका मिला।
एक कलाकार अपनी ही कला का बेहतर समीक्षक हो सकता है...
यह विद्या ऐसी है कि आप जितना रियाज करते जाएं उतना ही आप निष्णात होते जाएंगे। रियाज करते करते उम्र काफी हो जाती है। कला में इतनी गहराई है कि एक उम्र कम पड़ जाती है।
गोदई महाराज कहते थे कि भगवान हमें अगर और सौ वर्ष की उम्र देता तो और रियाज करते और कुछ नया ढूंढ निकालते। मेरी समझ से कलाकार कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता। ऐसे में समीक्षक होने का कहां सवाल उठता है।
बनारस घराने ने तबले पर नए प्रयोग किए हैं..
हां कुछ प्रयोग पिता जी करके गए। फिल्म मेरी सूरत तेरी आंखे का गीत याद करें. नाचे मन मोरा मगन तिकटा धिगी धिगी... इसमें बायें का प्रयोग नया था। संचिन देव बर्मन ने इस गाने में संगीत दिया था।
संगीत को बहुत से कलाकारों ने साधना से आगे ले जाकर ग्लैमर में परिवर्तित किया है... खूब पैसा भी बनाया है।
पैसा जीवन की जरूरत जरूर है। पर साधना से विमुख नहीं हुआ जा सकता। हमारे परिवार की गौरवशाली परंपरा रही है। परिवार की मान्यताएं हैं। हम साधना से विमुख नहीं हो सकते।
- विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com
( GUDAI MAHARAJ, PANDIT SAMTA PRASAD, KABIR CHAURA, VARANASI)
( GUDAI MAHARAJ, PANDIT SAMTA PRASAD, KABIR CHAURA, VARANASI)
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गुदई महाराज और अमजद अली खान एक जुगलबंदी के दौरान। |
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