पूरा महादेव से कल्याणपुर मार्ग पर हरनंदी नदी का पुल पार करके थोड़ी दूर चलने
पर दाहिनी तरफ एक डामर वाली सड़क मुड़ रही है। हम पहुंच रहे हैं आलमगीर पुर गांव
में। मेरठ जिले का यह गांव कभी सिंधु घाटी सभ्यता का प्रमुख केंद्र था। नदी पार
करने के बाद दोनों तरफ हरे भरे खेत नजर आ रहे हैं। दाहिनी तरफ एक कच्ची सड़क
आलमगीरपुर की तरफ जा रही है। सड़क पर मुड़ते ही खेत में गांव के पूर्व प्रधान की
समाधि नजर आई। इससे पता चला कि हम सही गांव में जा रहे हैं।
हालांकि
दुखद है कि इस ऐतिहासिक गांव के बारे में बताने के लिए मुख्य सड़क पर गांव को लेकर
कोई साईनबोर्ड या पथ संकेतक नहीं लगाया गया है। आसपास के गांव के लोगों को भी इसकी
ऐतिहासिकता के बारे में ज्यादा नहीं पता।
वैसे आलमगीर
पुर आप मेरठ बागपत हाईवे से होकर भी पहुंच सकते हैं। हाईवे पर गंग नहर से आगे जानी
खुर्द गांव से बहरामपुर खास गांव होकर आलमगीर पुर पहुंचा जा सकता है। इस गांव का
प्राचीन नाम परसराम का खेड़ा हुआ
करता था। बाद में मुस्लिम प्रभाव से इसका नाम आलमगीर पुर हो गया।
गांव में
पहुंचने पर लगता है कि आलमगीर पुर एक संपन्न गांव हैं। लोगों को घर अच्छे बने हैं।
सड़के ठीक हैं। गांव के बीच में बने एक मंदिर केपास जाकर मैं टीले का रास्ता पूछता
हूं तो एक दुकानदार उत्तर की तरफ जाने को कहते हैं। गांव से बाहर निकलने पर एक
मिट्टी का टीला नजर आता है। इस टीले पर लोगों ने भूसा रखने के स्टोर बना रखे हैं।
मतलब टीले पर गांव का कब्जा है। पूरे टीले का एक चक्कर लगाने के बाद कोने पर एक खेत में पुरातत्व विभाग का एक साइनबोर्ड नजर आता है। वह लोगों को अतिक्रमण से सावधान करता है। पर आलमगीर पुर के इतिहास से परिचित कराने वाला कोई बोर्ड यहां पर नहीं है। मैं टीले के ऊपर चढ़ कर पहुंचता हूं तो यहां हाल के बने तीन देवस्थल नजर आते हैं। बाकी टीले का धीरे धीरे कटाव हो रहा है।
मतलब टीले पर गांव का कब्जा है। पूरे टीले का एक चक्कर लगाने के बाद कोने पर एक खेत में पुरातत्व विभाग का एक साइनबोर्ड नजर आता है। वह लोगों को अतिक्रमण से सावधान करता है। पर आलमगीर पुर के इतिहास से परिचित कराने वाला कोई बोर्ड यहां पर नहीं है। मैं टीले के ऊपर चढ़ कर पहुंचता हूं तो यहां हाल के बने तीन देवस्थल नजर आते हैं। बाकी टीले का धीरे धीरे कटाव हो रहा है।
लंबे
समय तक आलमगीरपुर के बारे में लोग अनजान थे। पश्चिम उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में
यमुना की सहायक हिण्डन नदी के किनारे स्थित इस प्राचीन स्थल की खोज 1958 में इतिहासकार यज्ञदत्त शर्मा द्वारा की गई। आलमगीर पुर गंगा-यमुना में के
रेंज वह पहला स्थल था जहां से हड़प्पा कालीन अवशेष प्रकाश में आए थे।
इसे यह
नदी घाटी सभ्यता का का सबसे पूर्वी छोर में स्थित पुरातात्विक स्थल माना जाता है। इस
स्थल का सैंधव सभ्यता की अन्तिम अवस्था से जोड़कर देखा जाता है।
आलमगीरपुर
में खुदाई के दौरान मिट्टी के बर्तन, मनके
एवं पिण्ड मिले थे। यहां एक मिट्टी के गर्त से रोटी बेलने की चौकी और कटोरे के
टुकड़े भी प्राप्त हुए थे। हालांकि यहां से दूसरी नदी घाटी सभ्यता के शहरों की तरह
मातृदेवी की मूर्ति और मुद्राएं आदि नहीं मिली है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के
द्वारा इसका उत्खनन 1958-59 में कराया गया। खुदाई के दौरान यहां प्राप्त ईंटों का
आकार, लंबाई में 11.25 इंच
से 11.75 इंच, चौड़ाई
में 5.25 इंच से 6.25 इंच
और मुटाई में 2.5 इंच से 2.75 इंच के
मिले हैं।
वहीं
खुदाई में यहां विशिष्ट हड़प्पा सभ्यता जैसी ही मिट्टी के बर्तन मिले थे। जिस जगह इनकी प्राप्ति हुई उससे लगता था कि यहां
पर मिट्टी के बर्तन बनाने की कार्यशाला संचालित होती थी। साथ ही सिरेमिक (CERAMIC) के वस्तुओं में छत की टाइल, बर्तन, कप, फूलदान, घनाकार पासा, मोती, टेराकोटा
केक, गाड़ियां और एक कूबड़ वाले बैल और सांप की मूर्तियां भी यहां से प्राप्त हुई थीं।
धातु के सामान आलमगीरपुर से कम मिले हैं। परन्तु, इसमें एक तांबे से बना टूटा हुआ ब्लेड पाया गया था। प्रारंभिक व्यवसाय में मिट्टी की ईंट, लकड़ी आदि से बने घरों का निर्माण के बारे में भी जानकारी मिलती है। ये घर एक विशिष्ट हड़प्पा सामग्री संस्कृति से जुड़े थे, जिसमें सिंधु लिपि, जानवरों, स्टीटाइट मोतियों आदि के बर्तन शामिल थे।
धातु के सामान आलमगीरपुर से कम मिले हैं। परन्तु, इसमें एक तांबे से बना टूटा हुआ ब्लेड पाया गया था। प्रारंभिक व्यवसाय में मिट्टी की ईंट, लकड़ी आदि से बने घरों का निर्माण के बारे में भी जानकारी मिलती है। ये घर एक विशिष्ट हड़प्पा सामग्री संस्कृति से जुड़े थे, जिसमें सिंधु लिपि, जानवरों, स्टीटाइट मोतियों आदि के बर्तन शामिल थे।
कटता
जा रहा है ऐतिहासिक टीला – आलमगीर पुर गांव के
लोग इसके ऐतिहासिक महत्व से अनजान हैं। वे धीरे धीरे अपनी खेती की जमीन को बढ़ाने
के लिए टीले को काटकर समतल करते जा रहे हैं। पुराने लोग बताते हैं कि जब साठ के
दशक में इस टीले की खुदाई हुई थी, तब
यह बहुत बड़ा था। अब इसका क्षेत्रफल घटकर आधा रह गया है।
इस महान ऐतिहासिक धरोहर को बचाने
के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने इसे सुरक्षित स्थल घोषित तो कर दिया
है, लेकिन इसके
संरक्षण के लिए कोई इंतजाम नहीं किया गया है। इसकी वजह से गांव के लोग अपने खेतों
के क्षेत्रफल को बढ़ाने के लिए टीले को काट कर तेजी से समतल जमीन में बदल रहे हैं।
टीले पर लोगों ने गोबर के बिटौरे बनाना शुरू कर दिया है। लगातार अवैध निर्माण हो
रहे हैं। वहीं एएसआई के अधिकारियों ने यहां पर सुरक्षा के लिए किसी स्थायी
कर्मचारी की नियुक्ति या फिर इसकी बाउंड्री कराने का कोई प्रयास नहीं किया है।
टीला देखकर लौटने के बाद
आलमगीरपुर गांव के बीच में मंदिर के सामने वाली दुकान पर रुककर मैं एक समोसा खाता
हूं। छह रुपये का एक समोसा दो तरह की चटनी के साथ। इसके बाद बहरामपुर गांव की तरफ
चल पड़ता हूं।
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