भाई का
नाम था हीरामन और बहन का कमली। उनके माता-पिता हमारे खेतों में धान और गेहूं काटने और बोझा
ढोने का काम करते। इस दौरान हीरामन और कमली खेतों में गिरी हुई बालियां चुनते। दिन
भर में बालियां चुनकर अपने खाने के लिए कुछ अनाज जुटा लेते।
हीरामन
और कमली अपने माता पिता के साथ हमारे घर आए थे। कहां से आए थे। पलामू जिले के किसी
गांव से। हमारे गांव के सीवान से वे लोग काम की तलाश में चलते जा रहे थे। दादा जी
से बात हुई और उन्हें रोक लिया गया। इसके बाद वे कई महीने हमारे साथ ही रहे।
कुछ
यूं होता था कि हर साल धान और गेहूं काटने के समय कटनिहार हमारे यहां पलामू जिले
से ही आते थे। ये लोग पैदल पैदल एक गांव से दूसरे गांव घूमते जिस गांव में काम मिल
जाता वहीं उस सीजन में रुक जाते। हमारे दलान में उनके रहने का इंतजाम कर दिया
जाता। वे अपना खाना खुद बनाते थे। दिन चढ़ने के साथ हमारे खेतों में काम में जुट
जाते।
पूरे
सीजन हीरामन और कमली का परिवार हमारे परिवार के सदस्य की तरह था। हीरामन के पिता
भले मजदूर थे पर रामकथा के बड़े जानकार थे। शाम होने पर वे अपने बेटे को रामकथा
सुनाते। कथा सुनाने के बात सवाल करते। बताओ किस गलती से सीता का हरण हुआ। बेटा
हीरामन इसका तार्किक जवाब देता। जवाब सही नहीं होने पर पिता उसे दुरुस्त भी करते।
मौका
मिलता तो हीरामन और कमली हम भाई बहनों के साथ खेलते भी थे। हमारे लिए खुशी की बात
थी कि हमारे घर में दो बच्चे और आ गए थे। हमारे खेलने वाली मंडली बड़ी हो गई थी। पर
हीरामन और कमली हमारी तरह नहीं थे। उनका संघर्ष अलग था। वे पलामू जिले के भूमिहीन
परिवार से आते थे। उनका साल भर का दाना पानी हमारे यहां के दो मौसम की कटनी और
दंवनी पर ही निर्भर करता था।
हीरामन
और कमली हमारी तरह किसी स्कूल में नहीं जाते थे। जहां उनके पिता मजूरी करने जाते
वे उनके साथ हो लेते। कमली सुबह सुबह अपनी मां की रसोई में उनका हाथ बंटाती।
हीरामन अपने पिता को बोझा ढोने में मदद भी करता। बोझा उठाने के समय खास तौर पर मदद
की जरूरत पड़ती है।
भले वे
स्कूल नहीं जाते थे पर जिम्मेवारियों के मामले में वे हमारी उम्र में हमसे ज्यादा
परिपक्व हो गए थे। वक्त के थपेड़ों ने उन्हें अन्य एक एक दाने की कीमत समझा दी थी।
तभी तो वे खेतों में बिखरी हुई बालियों को भी चुन लेते थे।
हीरामन
कमली के परिवार से पहले वाले साल में हमारे घर धान काटने के लिए दो मजदूर आए थे जो
साधु थे। ये दो भाई या दो मित्र थे। लंबी जटाएं और लंबी दाढ़ी पर वे साधु हो गए
थे। पर ऐसे साधु थे जो मांग कर नहीं खाते थे। पेट के लिए रोजी रोजगार करते थे।
दोनों कबीरपंथी साधु हमारे घर दो महीने से ज्यादा रहे। हमारा पुराना दलान जिसके
आगे एक शहतूत का पेड था, उसी में उनका डेरा था।
एक रात
मैं जल्दी सो गया था। अचानक नींद खुली तो देखा दलान में संगीत की महफिल जमी है।
दोनों साधु पांव में घूंघरू बांध कर नाच रहे थे और गा भी रहे थे। काफी देर तक उनकी
संगीत की महफिल चलती रही। वे दोनों साधु लकड़ी का काम भी जानते थे। हमारे घर में
रहकर खाली समय में उन्होने काठ की पांच प्यालियां बनाईं। इसे वे कठुली कहते थे। वे
साधु तो चले गए पर वह कठुलियां कई सालों तक हमारे साथ रहीं और उन साधुओं की याद
दिलाती रहीं। पर वे दोनों साधु दुबारा हमारे खेतों में काम करने नहीं आए।
फिर
बात हीरामन और कमली की। हीरामन कमली अपने साथ एक लाल रंग का कुत्ता भी लाए थे। जब
तक वे हमारे घर रहे कुत्ते को हमारे घर से खाना मिलता था। तो कुत्ते की हमसे भी
जान पहचान हो गई। जब हीरामन और कमली अपने माता पिता के साथ जाने लगे तो मेरे दादा
जी ने आग्रह किया इस कुत्ते को हमें दे दो। हालांकि को वह कुत्ता हीरामन कमली का
साथ नहीं छोड़ना चाहता था पर थोड़े मान-मनुहार के बाद वह हमारे घर रुक गया।
(SOHWALIA DAYS 33 , HIRAMAN AND KAMLI )
( सोहवलिया की बातों को फिलहाल अल्पविराम पर फिर कभी मौका मिला तो यादों की पोटली से और भी कहानियां निकलेंगी। )
( सोहवलिया की बातों को फिलहाल अल्पविराम पर फिर कभी मौका मिला तो यादों की पोटली से और भी कहानियां निकलेंगी। )
बहुत ही आत्मीयता से बीते हुए समय को याद किया। बहुत सुंदर।
ReplyDeleteधन्यवाद
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