अभी दिल्ली में फेसबुक पर एक समूह में विज्ञापन देखा जिसमें लिखा था कि अगर आपको जांता से पिसा हुआ अरहर या मसूर की दाल चाहिए तो आर्डर करें। रेट है 200 रुपये किलो। वह दाल आर्गेनिक होगी। ये अच्छी बात है। पर हमारे बचपन में तो ये आम बात थी ढेंका में कूटा हुआ पोहा ( चिवड़ा) और जांता की पीसी हुई दाल।
गांव में सुबह उठते ही हमें भूख लग जाती थी। पर सुबह सुबह चूल्हा तो जलता नहीं था। चूल्हा जलाने के लिए पहले तैयारी करनी पड़ती। रात का सारा राख हटाकर रसोई घर को गोबर से लिपा जाता फिर सुबह सुबह चूल्हा जलाने का उपक्रम होता। पर हम बच्चों को इससे क्या। तो मां के पास विकल्प तैयार रहता था। वह हमें मउनी या डलिया में चावल का दाना (मूरी या फरही) और साथ गुड़ दे देती हैं। हम उसे नास्ते में फांक लेते। कई बार भूने हुए चने या फिर लाई या जिसे शहरी लोग चावल के लड्डू कहते हैं वह भी मिलता। सर्दी के दिनों में मेठी के लड्डू या फिर कसार जैसी कई चीजें। जब कुछ नहीं होता तो रात की बासी रोटी में नमक तेल लगाकर रोल बनाकर मां दे देती थीं। हम उसे खाते खाते दलान पर चले जाते थे। आज हम स्ट्रीट फूड में जिस तरह के रोल खाते हैं उनसे वह बासी रोटी को रोल ज्यादा स्वादिष्ट होता था। अब याद करने पर लगता है कि वह सेहतमंद नास्ता था। वह छोले कुलचे या छोले भठूरे की तरह आपको बीमार नहीं बनाता था।
गांव में सुबह उठते ही हमें भूख लग जाती थी। पर सुबह सुबह चूल्हा तो जलता नहीं था। चूल्हा जलाने के लिए पहले तैयारी करनी पड़ती। रात का सारा राख हटाकर रसोई घर को गोबर से लिपा जाता फिर सुबह सुबह चूल्हा जलाने का उपक्रम होता। पर हम बच्चों को इससे क्या। तो मां के पास विकल्प तैयार रहता था। वह हमें मउनी या डलिया में चावल का दाना (मूरी या फरही) और साथ गुड़ दे देती हैं। हम उसे नास्ते में फांक लेते। कई बार भूने हुए चने या फिर लाई या जिसे शहरी लोग चावल के लड्डू कहते हैं वह भी मिलता। सर्दी के दिनों में मेठी के लड्डू या फिर कसार जैसी कई चीजें। जब कुछ नहीं होता तो रात की बासी रोटी में नमक तेल लगाकर रोल बनाकर मां दे देती थीं। हम उसे खाते खाते दलान पर चले जाते थे। आज हम स्ट्रीट फूड में जिस तरह के रोल खाते हैं उनसे वह बासी रोटी को रोल ज्यादा स्वादिष्ट होता था। अब याद करने पर लगता है कि वह सेहतमंद नास्ता था। वह छोले कुलचे या छोले भठूरे की तरह आपको बीमार नहीं बनाता था।
जब तक हमारी
गैया दूध देती थी तो दही चूड़ा भी नास्ते का विकल्प होता था। हमारे आंगन के एक
बरामदे में मथानी लगी हुई थी। इस मथानी से मथ कर मां दही से मट्ठा (छाछ) बनाती
थीं। इस दौरान जो छाली निकलती उससे घी बनाया जाता था। वह देसी घी होता था जिसे
पढ़े लिखे लोग आयुर्वेदिक घी कहते हैं।
अगर
दही की बात करें तो मुझे छाली वाली दही खाना पसंद था। अब शहरों में जो दही मिलती
है उससे सारा घी तो पहले निकाला जा चुका रहता है तो छाली का सवाल की कहां उठता।
गांव में जो दही बनती थी। उससे बनाने के लिए दूध को कई घंटे तक धीमी आंच पर उबाला
जाता था। भोजपुरी में इसे दूध औंटना कहते थे। इसके बाद जो दही तैयार होती थी वह
हल्के लाल रंग की होती थी। उसके ऊपर छाली की मोटी परत होती थी। अभी भी कभी गांव
में रिश्तेदारी नातेदारी में चले जाने पर ऐसी दही खाने को मिल जाती है।
गांव
के उस आंगन के बरामदे में हमारे पास ढेका भी हुआ करता था। इस ढेका में चिउड़ा भी
कूट लिया जाता था। धान को छांट कर चावल भी निकाल लिया जाता था। इन कार्यों के लिए
कम से कम दो महिलाओं को लगना पड़ता था। कई बार ढेका कूटते समय मैया और चाची गीत भी
गाती रहती थीं।
आंगन
के बरामदे में एक कोने में ढेका तो दूसरे कोने में एक जांता भी होता था। इस जांता
में दाल दरा जाता था। चने की दाल और कई किस्म की दालें घर में ही तैयार हो जाती
थीं। यह वही जांता है जिसके बारे में कबीर
ने लिखा है – पीस खाए संसार। अनादि पहली बार गांव गए तो उन्होंने चाचा के घर में
जांता देखा तो उन्हें बड़ा कौतूहल हुआ। मैंने उन्हें इसकी प्रक्रिया समझाई।
हालांकि अब गांव में मिक्सर ग्राइंडर पहुंच गए हैं पर घरों में जांता का वजूद अभी कायम
है।
जरूरत पड़े तो इससे आटा, सत्तू सब कुछ पीस लिया जाता है। कई तरह के मसाले भी
इसमें पीसे जा सकते हैं। हालांकि हमारे बचपन में मसाला पीसकर पाउडर बनाकर रखने का
चलन नहीं था। खड़े मसाले को हर रोज सिलवट पर लोढ़ा से पीसा जाता था। जब जांता
पीसने का काम देर तक चलना होता तब दो महिलाएं साथ लग जातीं। देर तक पिसाई के साथ गीत
भी गुनगुनाती रहतीं। जब छठ का त्योहार नजदीक आता तो इसके प्रसाद के लिए तैयार की
जाने वाली हर सामग्री को घर में जांता में ही पीसा जाता था। इसके साथ ही छठी
मैय्या के गीतों की शुरुआत भी हो जाती थी।
- - विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com
( ( SOHWALIYA DAYS 30, DHEKA, JANTA, KUTAI, PISAI )
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