गांव
में हर घर में एक लगहर का होना जरूरी होता है। लगहर मतलब दूध देने वाली गाय या
भैंस। पर मेरे गांव में सदियों से भैंस पालने की पंरपरा नहीं है। हमलोग गाय ही
पालते आए हैं। एक वक्त ऐसा आया जब मेरे घर की दुधारू गाय बूढ़ी होकर मर गई। उस गाय
ने हमें गोला बैल दिया था। पर वह घरवैया बैल बड़ा शरारती था। गाय नहीं होने से
हमारे घर में दूध की दिक्कत हो रही थी। तब एक दिन दादा जी ने कहा एक नई गाय लेकर
आएंगे।
तो शुरू हो गई एक अदद गाय की तलाश। आसपास के कई गांव देखे गए। दादा जी नुआंव के मेले में भी गए। और एक दिन तलाश पूरी हुई दादा जी सफेद रंग की एक प्यारी सी गाभिन गाय लेकर आए। गाय का चेहरा देखने से ही ममतामयी प्रतीत हो रहा था। मैं कोई पांच साल का रहा होउंगा। अपने घर में आई गौ माता देखकर पूरे परिवार की खुशियों का ठिकाना नहीं था। हमने गाय के गले में एक घंटी बांध दी। जब वह गलियों में चलती तो उसके गले से रुनझुन की आवाज आती...वह संगीत आज भी कानों में गूंजता है।
तो शुरू हो गई एक अदद गाय की तलाश। आसपास के कई गांव देखे गए। दादा जी नुआंव के मेले में भी गए। और एक दिन तलाश पूरी हुई दादा जी सफेद रंग की एक प्यारी सी गाभिन गाय लेकर आए। गाय का चेहरा देखने से ही ममतामयी प्रतीत हो रहा था। मैं कोई पांच साल का रहा होउंगा। अपने घर में आई गौ माता देखकर पूरे परिवार की खुशियों का ठिकाना नहीं था। हमने गाय के गले में एक घंटी बांध दी। जब वह गलियों में चलती तो उसके गले से रुनझुन की आवाज आती...वह संगीत आज भी कानों में गूंजता है।
कुछ
दिन बाद गाय ने एक बछिया को जन्म दिया। इसके साथ ही घर में दूध की नदियां बहने
लगी। पहले दो दिन का दूध पीया नहीं जाता। उसका फेनुस बनाया गया।
रोज
सुबह शाम दादा जी बाल्टी लेकर गाय के थन से दूध निकालते। इस दूध निकालने में भी एक
संगीत की प्रतिध्वनि आती। खाली बाल्टी में अलग संगीत, जब बाल्टी भरने को आता तो
संगीत के सुर बदल जाते। हम उस सुर को रोज महसूस करते।
हम रोज
शाम को गाय का ताजा दूध पीते गिलास में भरकर। हम इसे गोरस कहते। दोपहर में गैया को
खेतों में ले जाकर चराने की जिम्मेवारी कभी कभी मेरी भी होती थी।
ठंड के
दिनों में सुबह सुबह मां कपड़े का गांती बांध देती थीं। इससे कान भी ढक जाते थे और
पीठ से नीचे तक भी। कई बार कपड़ा जमीन पर फैल कर गंदा होने लगता तो मां कहती
थीं...
एक हाथ
के गाजी मियां नौ हाथ के पोंछ
भागल
जालें गाजी मियां सोहर जाला पोंछ
कई बार
मैं गाय बछरू जानवरों को लेकर कोई गंभीर बात कर देता तो मां फटाक से कह उठतीं... कउवा
ले कबेलेवे तेज... मां के पास भोजपुरी की कई कहावतों को खजाना था।
हमारी
उस शुभशकुनी गैया ने एक बाद एक तीन बाछियां प्रदान कीं। ये सब बड़ी होकर गाय बनीं।
कुछ को रिश्तेदारों नातेदारों को दे दिया गया। तीसरे बच्चे के बाद हमारी वो प्यारी
गैया बूढ़ी होने लगी थी। एक समय ऐसा आया जब धीरे धीरे उसका दूध घटने लगा।
पर
हमारी गैया के दूध से मेरी छोटी बहन गुड्डी का कुछ यूं लगाव था कि वह रात को जब
नींद खुलती गाय का दूध मांगने लगती। तो उसके सोने वाली जगह पर कटोरी में दूध रखा
जाता था। जैसे मांगे तुरंत दूध हाजिर। मेरे छोटे भाई को ढाई तीन साल के रहे होंगे
जब गाय ने धीरे धीरे दूध देना बंद कर दिया। पर अनुज को भी रोज शाम को गाय का ताजा
दूध पीने की आदत पड़ गई थी। जब गाय ने दूध देना बंद किया तो भाई को भरोसा नहीं हो
रहा था। वह रोज शाम होते ही मां से गाय के दूध की फरमाईश करते। मां लाख समझाती की
अब गाय बिसुख गई है। वह दूध नहीं दे सकती।
पर भाई को भरोसा नहीं होता। वह मां से बड़े भावुक होकर नन्ही सी बाल्टी मांगते। उसे लेकर दलान पर जाते और दादाजी से कहते कि इसमें गाय के थन से दूध निकालो। दादा जी उनकी जिद पर गाय के पास जाते भी पर गाय दूध देने से इनकार कर देती। फिर मायूस होकर भाई घर लौट आते। ये सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। इस बीच उस गैया की सबसे बड़ी बछिया जो उन गाभिन थी, उसने एक बछड़े को जन्म दिया। और घर में एक बार फिर दूध की नदी बह निकली।
पर भाई को भरोसा नहीं होता। वह मां से बड़े भावुक होकर नन्ही सी बाल्टी मांगते। उसे लेकर दलान पर जाते और दादाजी से कहते कि इसमें गाय के थन से दूध निकालो। दादा जी उनकी जिद पर गाय के पास जाते भी पर गाय दूध देने से इनकार कर देती। फिर मायूस होकर भाई घर लौट आते। ये सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। इस बीच उस गैया की सबसे बड़ी बछिया जो उन गाभिन थी, उसने एक बछड़े को जन्म दिया। और घर में एक बार फिर दूध की नदी बह निकली।
आनंद आ गया पढ़कर। ये कहावतें मेरे यहाँ बज्जिका बोली में भी है।
ReplyDeleteअच्छा, मैं वैशाली जिले में भी लंबे समय तक रहा हूं, तो मैं वज्जिका भी समझता हूं।
Deleteवाह !!!!!! आपने एक बार फिर उन्हीं गांव की गलियों में पहुँचा दिया।
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteमेरा माँ आज भी ये कहावत कहती हैं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सर।
धन्यवाद
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