
बचपन के गांव में सारे मौसम बदलते देखे पर बारिश के
मौसम में हमारी परेशानी काफी बढ़ जाती थी। वह सबसे मुश्किल दिन होते थे। गांव में हमारा घर का बड़ा हिस्सा मिट्टी का था और उसकी छत खपरैल थी। तो लगातार बारिश होने पर घर में जगह जगह पानी टपकने लगता था। हालांकि बारिश से हर साल पहले दादा जी खपड़ों को छाने का काम करवाते थे। पर यह कामयाब नहीं होता था। कभी कभी तो तेज बारिश में घर के बरामदे में बैठना या रात को सोना भी मुश्किल होने लगता था। मतलब गांव के वो लोग जिनका घर पक्का नहीं है बरसात बहुत सताती थी।


मेरा घर गांव के बीच में था और दलान गांव बाहर। दादा जी दलान पर रहते थे। बारिश के दिनों
में गांव की गली में कीचड़ हो जाता था। घर से जाने के लिए घुटने तक कीचड़ में
घुसकर जाना पड़ता था। अब तो गांव की गली पक्की हो गई है तो कीचड़ नहीं होता। पर
मैं बचपन में उस कीचड़ से होकर भी दिन भर में तीन बार घर से दलान तक आता जाता। क्या
मुश्किल दिन थे वे भी। कभी कभी तो ऐसी बारिश होती कि कई दिनो तक धूप के दर्शन भी
नहीं होते। पर इस बारिश में खेती बाड़ी का काम चलता रहता। मेरे जिम्मे गाय चराने
का काम होता। बारिश में हम खाद के बोरे में आने वाले प्लास्टिक को काटकर जुगाड़ से
रेनकोट बना लेते। इसी रेनकोट को को पहनकर मूसलाधार बारिश में भी गाय चराते रहते।
पर जब तक बारिश के दिन नहीं आते हमलोग बारिश का
इंतजार भी करते। क्यों न हो भला बिना बारिश के धान की खेती कैसी होगी। जब पहली
बारिश होती है तो हम नाच उठते। नाचते हुए ये गीत गाते - आन्ही
बूनी आवेला चिरैया ढोल बजावे ले..
और जब घनघोर बारिश होने लगती तो कुछ इस तरह का गीत
गाते थे हमलोग - हरे रामा बरसे ला रिमझिम रस बुनिया...भीजेला पैजनीया हो रामा...
बारिश के दिनों में सबसे ज्यादा दिक्कत खाने पीने
को लेकर होती। हरी सब्जियों की गांव में कमी हो जाती थी। बाजार से सब्जी लाने का विकल्प बचता नहीं था। तो बारिश के दिनों के लिए खास तैयारी की जाती। इसके लिए मेरी मां आलू और
गोभी का सुखौंता बनाकर रखती थीं। ये आलू को उबालकर उसे काटकर धूप में कई दिन तक
सुखा लिया जाता। इसी तरह गोभी के फूल को भी। ये सुखौंता बारिश के दिनों में बड़ा
काम आता था। इसके साथ आलू की बड़ियां भी काम आती थीं बारिश में। मुझे सुखौंता का
सब्जी खाने में बहुत सुस्वादु लगती थी।
शहर से कट जाता था गांव - मेरे गांव से दक्षिण में
कुदरा नदी बहती है और उत्तर में परसथुआ नदी। दोनों गांव से चार से छह किलोमीटर दूर
हैं। पर बारिश में ये नदियां शबाब पर आ जाती हैं। इन दोनों ही नदियों का सड़क पुल
काफी कम ऊंचाई वाला था तो बारिश में ये पुल डूब जाते थे। इस तरह साल के तीन महीने
हमलोग शहर से कट जाते थे। अगर बहुत मजबूरी हो तो इन नदियों के पानी में उतरकर जाना
पड़ता जो बहुत ही खतरनाक कार्य था।
बारिश के दिनों में गांव में खेत खलिहान में बरसाती
कीड़े निकलते हैं। सबसे समान्य कीड़ा चारा होता था। इसके अलावा भुइला अगर वह पांव
पर चल देती तो ढेर सारे चकत्ते बन जाते थे। खूब जलन भी होती थी। इसी बारिश में
खेतों में जाना पड़ता था गाय लेकर। इस दौरान रास्ते में सांप, कनगोजर आदि भी मिलते
थे। पर हमारे हाथ में एक छोटी सी लाठी होती थी जो बहुत काम आती थी। इतना ही नहीं
रात को लालटेन जलाने पर ढेर सारे कीट पतंगे भी आते थे। पर इन सबके बीच रात को
जुगून की गुंजार बहुत प्यारी लगती थी। हमारे दादा उन्हें भगजोगनी कहते थे। वे एक
साथ झुंड में चलते तो संगीत भी निकालते और रोशनी भी करते।
- ( RAIN,
SOHWALIA DAYS=-10 )
भर-भर कर नोसटैलजिया 😊 लाजवाब फ़ोटोज़
ReplyDeleteहां जी
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