हमारे
सोहवलिया गांव में सोन नहर आती है। बसपुरा में सोन की बड़ी नहर का पुल है। वहां से
एक माइनर नहर निकली है। ठीक एक मील बाद इस नहर का पहला पुल हमारे गांव में पड़ता
है। इस नहर पर हर एक मील पर पुल हुआ करता है। इस पुल के साथ सुलिस गेट लगे हैं। इस
पुल के ऊपर से रजवाहे निकलते हैं जिनसे खेतों तक पानी पहुंचता है। नहर का यह पुल
बचपन में हमारे खेलने कूदने की प्रिय जगह होती थी। खेतों की ओर आते जाते लोग नहर
के बैंक पर बैठकर सुस्ताया भी करते थे।
नहर के
पुल से पानी नीचे की ओर गिरता था। तो नहर के आगे एक छोटा सा तालाब बन जाता था। जब
नहर में पानी कम होता तो पुल के आगे इस मिनी तालाब में हमलोग उतर जाया करते थे। एक
बार इसी तालाब में उतरने के बाद मैं फंस गया था। पानी के बीच। निकलने का कोई
रास्ता नहीं सूझ रहा था। मेरे सारे दोस्त मुझे छोडकर फरार हो गए थे। मैं सहायता के
लिए आवाज लगा रहा था। संयोग से मेरे दादाजी खेत से लौटते हुए गुजरे। मैंने उन्हें
आवाज लगाई। पहले तो उन्होंने नहीं सुना। कई बार आवाज लगाने पर उनकी नजर मेरी ओर
पड़ी। वे दौड़े हुए मेरे पास आए। उन्होंने मुझे अपनी लाठी पकड़ाई। कहा इसे पकड़कर
किनारे आ जाओ। इस तरह में संकट से बाहर निकला।
इसी तालाब में कई बार पड़ोस के गांव से एक महावत हाथी लेकर आता था। वह हाथी को नहर के पानी में नहलाया करता था। हम उसे हर बार आग्रह करते कि हमें हाथी पर बिठाकर थोड़ी दूर घूमा दो। पर वह हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देता। पर हम इस उम्मीद में कि वह मेरी बात कभी तो सुन लेगा हाथी के पीछे दौड़ते हुए दूर तक जाते। पर निराश होने पर कानडिहरा की तरफ जामुन के पेड़ के पास से लौट आते। हमारी हाथी पर बैठने की हशरत कभी पूरी नहीं हो सकी।
इसी तालाब में कई बार पड़ोस के गांव से एक महावत हाथी लेकर आता था। वह हाथी को नहर के पानी में नहलाया करता था। हम उसे हर बार आग्रह करते कि हमें हाथी पर बिठाकर थोड़ी दूर घूमा दो। पर वह हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देता। पर हम इस उम्मीद में कि वह मेरी बात कभी तो सुन लेगा हाथी के पीछे दौड़ते हुए दूर तक जाते। पर निराश होने पर कानडिहरा की तरफ जामुन के पेड़ के पास से लौट आते। हमारी हाथी पर बैठने की हशरत कभी पूरी नहीं हो सकी।
एक दिन
मैं अपने दोस्तों के साथ नहर के पुल के पास खेल रहा था। तभी हमारे गांव के एक
नौजवान गया साइकिल से जा रहे थे। वे अपने रिश्तेदारी में रतनपुरा जा रहे थे। गया
ने मुझसे कहा, आओ तुम्हें साइकिल पर बिठा कर ले चलूं। उन्होंने कहा, एक मील आगे
बसपुरा गांव में दादी के पास छोड़ दूंगा। वहां मेरी दादी शिक्षिका थीं। मैं साइकिल पर चढ़ने के नाम पर झटपट तैयार
हो गया। उन्होंने मुझे साइकिल पर आगे डंडे पर बिठा लिया। हाथी पर नहीं बैठ सका तो
क्या हुआ साइकिल पर बैठने का भी अपना रोमांच था। गया ने मुझे दादी के पास स्कूल
में छोड़ दिया और वह आगे अपने गांव चला गया। मैं दादी के स्कूल में खेलने लगा।
उधर, कई
घंटे तक घर नहीं लौटने पर गांव में मेरी तलाश शुरू हुई। अक्सर गांव से बच्चों के
कहीं गायब होने की उम्मीद नहीं रहती। इसलिए बच्चे बेतकल्लुफ होकर कहीं भी खेलते
रहते हैं। पर मैं घर नहीं लौटा तो मां, पिताजी, दादाजी सभी ने मेरी तलाश शुरू की। एक
बच्चे से पूछताछ शुरू हुई। तब किसी ने कहा, विकास को तो गया अपने साथ साइकिल पर बिठाकर कहीं
ले गया। अब मेरी कहानी में गया खलनायक बन चुका था।
उस समय घर में किसी के पास साइकिल भी नहीं थी। पैदल-पैदल दादाजी बसपूरा पहुंचे, वे आगे रतनपुरा तक भी जाते पर उन्होंने सोचा एक बार दादी से मिलता हुआ चलूं। स्कूल परिसर में पहुंचते ही उन्होंने मुझे वहां बेतकल्लुफ खेलता हुआ देखा। छुट्टी होने पर मैं दादी के साथ अपने गांव लौट आया। तब मुझे अच्छी तरह शिक्षा मिली की बिना घर में बताए गांव की सीमा से बाहर किसी के साथ कभी नहीं जाना। उस गया के साथ बाद में क्या सलूक हुआ मुझे नहीं मालूम। पर मां पिता जी ने मिलकर ऐसी कड़ी सजा दी की मुझे सालों याद रहे।
उस समय घर में किसी के पास साइकिल भी नहीं थी। पैदल-पैदल दादाजी बसपूरा पहुंचे, वे आगे रतनपुरा तक भी जाते पर उन्होंने सोचा एक बार दादी से मिलता हुआ चलूं। स्कूल परिसर में पहुंचते ही उन्होंने मुझे वहां बेतकल्लुफ खेलता हुआ देखा। छुट्टी होने पर मैं दादी के साथ अपने गांव लौट आया। तब मुझे अच्छी तरह शिक्षा मिली की बिना घर में बताए गांव की सीमा से बाहर किसी के साथ कभी नहीं जाना। उस गया के साथ बाद में क्या सलूक हुआ मुझे नहीं मालूम। पर मां पिता जी ने मिलकर ऐसी कड़ी सजा दी की मुझे सालों याद रहे।
- विद्युत प्रकाश मौर्य vidyutp@gmail.com
( SOHWALIA DAYS 19 , KIDNAPPED, ROHTAS, BIHAR )
संस्मरण पढ़कर मजा आया। कई बार ऐसी ही गलतफहमियों के चलते कुछ का कुछ हो जाता है। अगले संस्मरण का इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबढ़िया संस्मरण।
ReplyDeleteधन्यवाद
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