हमारे टोले पर हर साल किसी खास
महीने में बहुरुपिया आया करता था। जहां तक मुझे याद आता है कि वह दशहरे के आसपास
आता था। बचपन के गांव में जब टीवी नहीं था। हमने कभी कोई फिल्म नहीं देखी थी। वह
बहुरुपिया हमारे मनोरंजन का बड़ा साधन था।
पहले दिन वह पागल का रुप धर कर
आया। पूरी गली में कपड़े फाड़ कर पागलों जैसी हरकत करता हुआ घूमता रहा। जैसे गांव
में बहुरुपिया पहुंचता, हमारे जैसे सभी बच्चों की टोली उसके साथ हो लेती।
बहुरुपिया आगे आगे और हम पीछे-पीछे। पागल के बाद अगले दिन वह खूनी बनकर आया। उसके
हाथ खून से सने हुए थे। वह रूप बदलने में इतना उस्ताद था कि हमलोग भी पहचान नहीं
पाते थे कि ये कल वाला ही आदमी है। कई बार बहुरुपिया ऐसी हरकतें करता था कि गांव
के कुछ लोगों से उसकी बकझक भी हो जाती थी। पर थोड़ी देर में सब कुछ समान्य हो
जाता।
वह हमारे गांव के पास ही ससना
पटना नामक गांव का रहने वाला था। उस गांव में जहां अखबार नहीं आता था। टेलिविजन
सिनेमा नहीं था। रेडियो किसी किसी के पास था। बहुरुपिया हमारे मनोरंजन का बड़ा
साधन था। वही हमारा कॉमिक्स बुक, रामायण महाभारत और सिनेमा सब कुछ था। वह हमारा
धर्मेद्र, देवानंद और अमिताभ बच्चन सब कुछ था। हमें बड़ी बेसब्री से इंतजार होता कि आज बहुरुपिया कौन से रूप में आएगा।
बहुरूपिया के जब सारे स्वांग
खत्म हो जाते तो वह आखिर में अपने मूल स्वरूप में आता था। इस दौरान वह हर घर से
अपना हर साल तय सलामी की रकम लेकर जाता था। बहुरुपिया को हमारे गांव से हर घर से
अनाज मिलता था। धान और गेहूं का बोझा तय होता था। ठीक उसी तरह जैसे हमारे बढ़ई
महाराज मिस्त्री और हज्जाम दुखी ठाकुर को सालाना अनाज दिया जाता था। बढ़ई को अनाज
की रकम आपके घर चलने वाले हल के हिसाब से दिया जाता था। इसके एवज में वे सालों भर
हल, हेंगा, जुआठ आदि की मरम्मत किया करते थे। इसके अतिरिक्त कोई काम कराना हो तब
अलग से मजदूरी देनी पड़ती थी। हमारे बढ़ई महाराज मिस्त्री बड़े गुणी और बातूनी
आदमी थे। जब हमारे घर काम करने आते तो मुझसे खूब बातें करतें। पर उनके बेटे
रामअवतार ने गांव में काम की कमी देखी तो शहर में कारपेंटर का काम करने चले गए।
इसी तरह हमारे नाऊ (हज्जाम)
दुखी ठाकुर ने भी बूढ़े होने पर बाल दाढ़ी काटने का काम छोड़ दिया। उनके बेटे
दुदुल ने भी शहर में जाकर सैलूनों में काम करना शुरू कर दिया। दुखी ठाकुर कानडिहरा
गांव से आते थे। जब उन्होंने बाल दाढ़ी काटना छोड़ दिया तो उनका बोझा मिलना भी बंद
हो गया। पर हमारे गांव में हजाम का बड़ा संकट खड़ा हो गया। खैर दाढ़ी तो लोग खुद
भी बना लें पर बाल काटने के लिए तो हज्जाम की जरूरत पड़ती ही है। सबसे ज्यादा संकट
शादी विवाह के समय आता। शादी में हज्जाम का जाना जरूरी होता है। वह शादी में पंडित
के आधे रश्म खुद करता है। वह पंडी जी का प्रमुख सहायक होता है। पर नियमित काम नहीं
मिलने के कारण कई गांव में नाऊ, धोबी, हजाम, लुहार आदि का इन दिनों संकट रहने लगा
है। यहां तक की शादियों में तो भड़भूजे की भी जरूरत पड़ती है। पर अब कई गांवों में
चूल्हे पर रेत के साथ दाना भूंजने वाले भड़सार खत्म होने लगे हैं। तो भड़भूजे वालों
ने भी अपना पेशा छोड़ना शुरू कर दिया है।
खैर बाद बहुरुपिया की हो रही
थी। तो बहुरुपिया जब समान्य वेश वूषा में आता तो हमारे लिए पहचानना मुश्किल हो
जाता कि वह वही आदमी है। वह मेरे दादाजी को भैया कहकर बातें करता। कुछ साल बाद
गांव जाने पर पता चला कि अब बहुरुपिया ने खेल दिखाना बंद कर दिया है। गांव गांव
में वीडियो से चलने वाले सिनेमा के पहुंच जाने पर बच्चों में बहुरुपिये का क्रेज
कम होने लगा। हमारे गांव में आने वाले बहुरुपिया चेहरे मोहरे से थोड़ा नाजुक दिखाई
देता था। उसका आचार व्यवहार भी थोड़ा स्त्रैण था। खेती बाड़ी उसके लिए थोडा
मुश्किल काम था। गांव के लोग बताते हैं कि अब कोई बहुरुपिया नहीं आता। उसके बच्चे
भी इस पेशे से काफी दूर जा चुके हैं।
कभी कभी गांव में बंदर का नाच
देखने को मिल जाता था। एक नट बंदर को लेकर आता था। वह डुगडुगी बजाता तो गांव के
सारे बच्चे गली में एक जगह पहुंच कर उसे घेर लेते। उसके बाद शुरू हो जाता बंदर का
नाच। एक बार बंदर वाले ने नाच खत्म होने के बाद बोला जाओ जाकर अपने साढू भाई को
प्रणाम करो। बंदर तपाक से मेरे पास आकर नमस्ते की मुद्रा में खड़ा हो गया। गांव
बच्चों और मेरे घर के लोग इस घटना को सालों याद करके खूब हंसी उड़ाते।
गांव में कभी कभी एक बाइस्कोप
वाला भी आता था। हमलोग अलग अलग डिब्बे खोलकर बैठ जाते। वह रिकार्ड प्लेयर पर गाने
चला देता। बाइस्कोप के अंदर कुछ फिल्मी सितारों की तस्वीरें नजर आतीं। साथ दिल्ली
का लालकिला, कुतुबमीनार, आगरा का ताजमहल और कोलकाता का हावड़ा ब्रिज भी नजर आता।
बाइस्कोप वाला दस पैसे लेता था, या फिर उसे चावल या गेहूं दिया जाता था।
कभी कभी गांव में साइकिल पर
गर्मी के दिनों में आईसक्रीम बेचने वाला भी आता था। उसकी साइकिल से एक खास किस्म
की टर्रररररररररररररर की आवाज आती हो हम समझ जाते थे मलाई बरफ वाला आ गया है। वह
पांच पैसे और दस पैसे का मलाई बरफ बेचता था। उसको चूसकर जो आनंद आता था आज वैसा
आनंद किसी महंगे रेस्टोरेंट में रस मलाई खाकर भी नहीं आता।
पुराने दौर की बहुत सी यादें ताज़ा करती है आपकी पोस्ट. याब ये सब गायब ही हो चला है. कुछ देसी और साधारण चीजें ज़िन्दगी को असाधारण बनाती थीं. पर जीवन तो चलने का नाम है...
ReplyDeleteहां जी, सही कहा आपने
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