हथिया हथिया शोर कइले, गदहो ना
ले अइले रे,
तोरा बहिन के सोटा मारो..गांव के नाम हसवले रे...
बकरी के रोड़िया मिठइया ले अइले रे,
मार समधी भड़ुवा...नउवा हसवले रे....
ये बानगी है भोजपुरी इलाके में बारात दरवाजे पर आने शादी में दिए जाने वाले गारी (गाली) की...
तोरा बहिन के सोटा मारो..गांव के नाम हसवले रे...
बकरी के रोड़िया मिठइया ले अइले रे,
मार समधी भड़ुवा...नउवा हसवले रे....
ये बानगी है भोजपुरी इलाके में बारात दरवाजे पर आने शादी में दिए जाने वाले गारी (गाली) की...
हमारे गांव में जब किसी घर में शादी
हो तो कई दिन पहले से माहौल बनने लगता है। मडवा छाने की रस्म के साथ ही। शादी में
हर रीति रिवाज के साथ जुड़े होते हैं। उसके गीत। माडो छवाई के कई गीत होते हैं...
हरे हरे बाबा बंसवा कटइह,
उंचे-उंचे मडवा छवईह हो...
हरे हरे बाबा बंसवा कटइह,
उंचे-उंचे मडवा छवईह हो...
और
चारो बंसवा गड़िह बाबा चारो कोनवा,
एगो बंसवा गड़िह बाबा बेदिया के बीचवा...
शादी के पहले मटकोर की रस्म होती है। इसमें महिलाएं झुंड में पास के खेत में मिट्टी कोड़ने जाती हैं। ये रस्म बिहार के लगभग हर इलाक में होती हैं। इस मटकोर के भी कई गीत हैं...
कहंवा के पीयर माटी...कहंवा के कुदार हो..
कहंवा के सात सुहागिन...माटी कोड़े जास हो...
चारो बंसवा गड़िह बाबा चारो कोनवा,
एगो बंसवा गड़िह बाबा बेदिया के बीचवा...
कहंवा के पीयर माटी...कहंवा के कुदार हो..
कहंवा के सात सुहागिन...माटी कोड़े जास हो...
शादी के पहले घर में होती ही
इमली घोटाने की रस्म। इसमें मामा की भूमिका होती है। लड़की हो या लड़का दोनों के
लिए इमली घोटाने की रस्म होती है। हालांकि इसमें इमली का इस्तेमाल नहीं होता। आम
के पल्लव को पांच बार कन्या या वर की मां काटती है। इसका भी गीत होता है-
मामा
हाली हाली, मामा हाली हाली
इमली घोटाव हो मामा हाली हाली....
इमली घोटाव हो मामा हाली हाली....
लड़के के घर में शादी से पहले
कन्या पक्ष की ओर से तिलक आता है। इस तिलक के भी दर्जनों गीत हैं...
तिलक चढ़ावे तिलकहरू, तिलक काहे थोड़ आईल हो...
मोरे बाबू पढ़ल पंडितवा तिलक काहे थोड़ आईल हो...
तिलक का एक और गीत ....
उठ ए राजा बबुआ हो जा तैयार हो...
दुअरे तिलकरु अइलें, चूमें लिलार हो...
तिलक चढ़ावे तिलकहरू, तिलक काहे थोड़ आईल हो...
मोरे बाबू पढ़ल पंडितवा तिलक काहे थोड़ आईल हो...
तिलक का एक और गीत ....
उठ ए राजा बबुआ हो जा तैयार हो...
दुअरे तिलकरु अइलें, चूमें लिलार हो...
जब बारात दरवाजे पर आती है तो
दुल्हा परीक्षन के समय के भी गीत होते हैं। उसके बाद गहने चढाने की रस्म के समय
भसुर को भी खूब मीठी गालियां सुनने को मिलती हैं...
अइसन सुनर धिया बकचोन्हर मिलल भसुर,
बकलोल मिलल भसुर...
गैया असन धिया के खेलाड़ मिलन भसुर...
अइसन सुनर धिया बकचोन्हर मिलल भसुर,
बकलोल मिलल भसुर...
गैया असन धिया के खेलाड़ मिलन भसुर...
सुबह बेटी विदाई के गीत को
सुनकर सबकी आंखों में आंसू होते हैं। शादी के चार दिन बाद होने वाले चउठारी के भी
गीत होते हैं। हर गीत में बाबा,चाचा, भाई के नाम लिए जाते हैं।
छुटपन में शादियों में शामिल
होने का अपना ही आनंद था। चाहे गांव में शादी हो या फिर बारात जाना हो। गांव में
शादी होती तो कई दिन पहले से घर में तैयारी शुरू हो जाती। हमारे यहां माडो गाड़ने
की रश्म होती है। इसमें हरे बांस से आंगन में माडो बनाया जाता है। दूर से ही दिखाई
दे जाता है कि इस घर में किसी कन्या का विवाह हो रहा है।
शादियों की तैयारी शुरू होती है
घर में अड़ोस पड़ोस में रौनक छा जाती थी। कुछ दिन पहले से ही मेहमानों के आने
सिलसिला शुरू हो जाता था। गांव में कुछ रिश्तेदारी नातेदारी के नए बच्चे आ जाते
थे। उनके साथ गलियों में खेलने का मौका मिलता था। जिस घर में शादी होने वाली है
उसके आंगन का तो कहना ही क्या। तरह तरह के पकवान बनाने की तैयारी पहले से ही शुरू
हो जाती थी। बड़ी सी हांडी में दही बड़े बन रहे हैं। तो हलवाई मोतीचूर के लड्डू
तैयार कर रहे है। खाजा तैयार करके झपोली में सजाए जा रहे हैं। इन शादियों के दौरान
हमें पढ़ाई लिखाई करने से भी थोड़ी छूट मिल जाती थी। हम बच्चों को भला इससे क्या
मतलब कि शादी की तैयारी में घर के मुखिया को कितने पापड़ बेलने पड़ रह हैं। इस
शादी में कितना दहेज दिया गया है। वह रकम कितनी मुश्किल से जुटाई गई होगी। तो
हमारे छुटपन में गांव में हमारी कई फुआ लगने वाली कन्याओं की शादी हो रही थी।
शुभंती फुआ की शादी, तो बिमला फुआ की शादी। हर शादी में हमें भोज खाने को मिल रहा
था।
पर सरिता फुआ की शादी खास थी।
सरिता फुआ वैसे तो गांव में नहीं रहती थीं। उनके पिता जी वायु सेना में पदस्थापित
थे। कानपुर में पोस्टिंग थी। पर उनकी शादी के लिए सारा परिवार गांव पहुंचा था। कोई
सन 1976-77 का साल रहा होगा। उनके विशाल घर में शादी की तैयारियां चल रही थी। पूरे
गांव में रौनक थी। तब मैं बहुत छोटा था। मुझे उस शादी की बड़ी धुंधली सी याद है।
बारात सोन नदी के किनारे अर्जुन बीघा गांव से आई थी। पूरी शादी के बीच बस इतना
मुझे याद है कि एक सफेद एंबेस्डर कार आई थी। उसमें शादी के बाद सरिता फुआ चली गईं।
बस उनकी विदाई का दृश्य स्मृतियों में है। उसके बाद मेरी सरिता फुआ से सभी मुलाकात
नहीं हुई, कभी उन्हें देखा नहीं।
इस बात के कई दशक गुजर गए। पर
अचानक साल 2020 में डेहरी ओनसोन से संचालित होने वाली एक वेबसाइट सोनमाटी डाट काम
की एक खबर पर मेरी नजर गई। उसमें डॉक्टर सरिता सिंह के तीन दशक से ज्यादा का
शिक्षिका की नौकरी से रिटायर होने की खबर प्रकाशित थी। तो सरिता फुआ ने कानपुर में
अंग्रेजी साहित्य से 1977 में बीए किया था। वे 1980 से दरिहट रोहतास के रामप्यारी
बालिका उच्च विद्यालय में बतौर अंग्रेजी शिक्षिका पढ़ाने लगी थीं।
इसी दौरान
उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एमए किया। इसके बाद उन्होंने
1999 में वीर कुंअर सिंह विश्वविद्यालय से बाल श्रम की समस्या पर पीएचडी भी किया।
अब वे डॉक्टर हो गईं। साल 2017 में दरिहट के उसी स्कूल से लंबी नौकरी के बाद
रिटायर हो गईं। उनके पति अवधेश कुमार सिंह जिला बीज निरीक्षक, छपरा में नौकरी करते
हुए रिटायर हुए।

सोनमाटी डॉट काम के सौजन्य से
ही मुझे सरिता फुआ का नंबर मिला। उनसे बात हुई। गांव की मिट्टी से जुड़ा हुई
रिश्ता भला कभी विस्मृत होता है। उन्हें भी मेरी याद आ गई। उनकी बातों में स्नेह
था। प्रसन्नता के सुर थे। और हमने मिलकर अपने बचपन के गांव को खूब याद किया। सोनमाटी
को धन्यवाद।
- --- विद्युत प्रकाश मौर्य – vidyutp@gmail.com
( SOHWALIA DAYS 14, SHADI, BHOJPURI GEET, FOLK SONGS, ROHTAS, BIHAR )
ये चश्मे वाला बालक 'अनादि' तो नहीं ?
ReplyDeleteहां अनादि ही है।
Deleteबिहार के शादी का पूरा दृश्य याद आ गया। शादी में गारी न हो तो मज़ा ही क्या।
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