सूर की साधना स्थली पारसौली में
महानसंत महाप्रभु वल्लभाचार्य जी की बैठक भी है। यह उनकी देश भर में बनी 84 बैठकों
में से एक है। सूरदास खुद वल्लभाचार्य के शिष्य थे। सूरदास जी को वल्लभाचार्य के
आठ शिष्यों में प्रमुख स्थान प्राप्त था।
कौन
थे वल्लभाचार्य - वल्लभाचार्य भक्तिकाल में
सगुणधारा में पुष्टि मार्ग के प्रणेता माने जाते हैं। उनका सन 1479 में चौड़ा नगर
के पास वन में हुआ था। उनका परिवार दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी
के तट पर स्थित ग्राम कांकरवाड का रहने वाला था। उनका मां का नाम इल्लमागारु था।
आठ माह में पैदा हुए बालक का नाम वल्लभ रखा गया।
उनका बचपन काशी व्यतीत हुआ था। यहीं उनका आरंभिक अध्ययन हुआ। उनका परिवार काफी बड़ा और समृद्ध था। आगे चलकर वल्लभाचार्य भी वेद शास्त्र में पारंगत हुए। उनके दो पुत्र हुए गोपीनाथ और विट्टलनाथ। उन्हें श्रद्धा के साथ महाप्रभु वल्लभ भी कहा जाता है। कहा जाता है कि वल्लभाचार्य ने अपना दर्शन खुद गढ़ा था लेकिन उसके मूल सूत्र वेदांत में ही निहित हैं।
उनका बचपन काशी व्यतीत हुआ था। यहीं उनका आरंभिक अध्ययन हुआ। उनका परिवार काफी बड़ा और समृद्ध था। आगे चलकर वल्लभाचार्य भी वेद शास्त्र में पारंगत हुए। उनके दो पुत्र हुए गोपीनाथ और विट्टलनाथ। उन्हें श्रद्धा के साथ महाप्रभु वल्लभ भी कहा जाता है। कहा जाता है कि वल्लभाचार्य ने अपना दर्शन खुद गढ़ा था लेकिन उसके मूल सूत्र वेदांत में ही निहित हैं।
महाप्रभु
की 84 बैठकें : आचार्य पद प्राप्त करने
के बाद वल्लभाचार्य ने कुल तीन बार पूरे भारत भ्रमण किया। वे गुरुनानक देव की तरह
ही बड़े भ्रमणशील संत हुए। इस दौरान उन्होंने शुद्धाद्वैत पुष्टिमार्ग संप्रदाय का
प्रचार किया और अपने अनगिनत शिष्य बनाए। इस दौरान उन्होंने मार्ग में कुल 84 भागवत
पारायण किए। जिन-जिन स्थानों पर पारायण की थी वे आज भी 84 बैठक के नाम से जानी
जाती हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो श्री
वल्लभाचार्य जी ने अपनी यात्राओं में जहां श्रीमदभागवत का प्रवचन किया था अथवा जिन
स्थानों का उन्होंने विशेष माहात्म्य बतलाया था, वहां उनकी बैठकें बनी हुई हैं। ये बैठकें देश के अलग अलग राज्यों में
स्थित है। इनमें से कई बैठकें मथुरा के आसपास स्थित हैं। मुझे महाप्रभु की एक बैठक
नंदगांव से पहले कोकिल वन में भी दिखाई दे गई थी।
बिहार के शहर हाजीपुर के हेला
बाजार में भी महाप्रभु की एक बैठक है। देश में स्थापित इन बैठकों में कई अच्छे हाल
में हैं तो कई का हाल बुरा है। कई बैठकों के पास अच्छी खासी जमीन भी है। आज भी
महाप्रभु के भक्तों की बड़ी संख्या है जो इन बैठकों से जुड़े हुए हैं।
महाप्रभु वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैतवाद
- महाप्रभु वल्लभाचार्य के मध्यकालीन भारत के
महान संत माने जाते हैं। उनका पूरा जीवन कृष्ण भक्ति में लीन रहा। उनका निधन सन
1537 (संवत 1588) में हुआ। वे शुद्धाद्वैतवाद के प्रतिपादक संत
थे। उन्होंने माधवाचार्य द्वारा प्रतिपादित विचारधारा द्वैतवाद और शंकराचार्य के
अद्वैतवाद को आगे बढ़ाया। संत माधवाचार्य की विचारधारा शंकराचार्य के अद्वैतवाद से
बिल्कुल उलट है। यानी वे मानते हैं ब्रह्म और जीव अलग अलग हैं। पर वल्लभाचार्य ने
कहा कि जीव जगत में ईश्वर का ही रूप है। जीव और जगत में एक अभिन्नत्व भी है।
सम्मान
में डाक टिकट जारी हुआ - संत वल्लभाचार्य ने अपने जीवन
काल में कई पुस्तकों की रचना भी की। भारत सरकार ने इस महान संत के सम्मान में सन 1977 में एक रुपये मूल्य का एक डाक टिकट भी जारी किया था।
पुष्टिमार्ग का विचार ः कृष्णभक्ति में लीन उन्होंने पुष्टिमार्ग का विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि ईश्वर और जीव के बीच वास्तव में कोई भेद नहीं है। ब्रह्म का अंश ही है जीव। वल्लभाचार्य के अनुसार जीव ब्रह्म ही है। यह भगवत्स्वरूप ही है, किन्तु उनका आनन्दांश हमेशा आवृत रहता है। आज उनके भक्तों की बहुत बड़ी फेहरिस्त है।
पुष्टिमार्ग का विचार ः कृष्णभक्ति में लीन उन्होंने पुष्टिमार्ग का विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि ईश्वर और जीव के बीच वास्तव में कोई भेद नहीं है। ब्रह्म का अंश ही है जीव। वल्लभाचार्य के अनुसार जीव ब्रह्म ही है। यह भगवत्स्वरूप ही है, किन्तु उनका आनन्दांश हमेशा आवृत रहता है। आज उनके भक्तों की बहुत बड़ी फेहरिस्त है।
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( MAHAPRABHU VALLABHACHARYA, 84 BAITHAK,
KRISHNA BHAKTI, PUSTIMARG, MATHURA )
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