हिंदी फिल्मों के दो गीतों मे
बरेली के झुमके की बात आती है। साल 1968 की पुरानी हिंदी फिल्म किस्मत के गीत कजरा मुहब्बत
वाला को याद करें। उसमें बीच की पंक्तियां हैं – झुमका बरेली वाला... कानों में
ऐसा डाला... झुमके ने ले ली मेरी जान। इस गीत के लेखक थे एसएच बिहारी।
महान शायर शकील बदायूंनी तो रहने वाले बदायूं के थे। बदायूं बरेली से 50 किलोमीटर दूर है। पर इस अजीम शायर के नाम पर बरेली रेलवे स्टेशन पर हिंदी पुस्तकालय बना हुआ है। यह शायर को याद रखने का बेहतरीन तरीका है। कौमी एकता के इस महान शायर ने हिंदी फिल्मों का सबसे लोकप्रिय भजन को कलमबद्ध किया था... याद है ना फिल्म बैजू बावरा... मन तड़पत हरि दर्शन को आज... इसे स्वर दिया मो. रफी ने तो संगीत से संवारा नौशाद साहब ने।
इससे पहले 1966 में आई फिल्म मेरा
साया फिल्म का गीत – झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में .... राजा मेहंदी
अली खां का लिखा ये गीत सुपर डुपर हिट हो गया।
पर क्या सचमुच बरेली में झुमका बनता है। कुछ स्थानीय लोग कहते हैं कि बरेली तो झुमके के लिए प्रसिद्ध नहीं है। पर इन गीतों ने झुमके को चर्चा में ला दिया। पर ऐसा नहीं कभी बरेली में झुमके बनते थे। किस्म किस्म के झुमके। और इनकी दूर दूर तक प्रसिद्धि थी। पर अब यहां झुमके कुछ खास नहीं बनते। पर बरेली के बाजार में झुमके के बोर्ड लगे हुए दिखाई देते हैं। अब एक प्रस्ताव आया कि बरेली के किसी चौराहे पर एक विशाल झुमका स्थापित किया जाए।
साल 2020 के फरवरी में बरेली के परसाखेड़ा तिराहे का नाम झुमका तिराहा रखा गया। अब यहां पर एक विशाल झुमका स्थापित किया गया है। इस पर 20 लाख रुपये खर्च आया है। तो फिल्मी पहचान अब असली बन गई है।
पर क्या सचमुच बरेली में झुमका बनता है। कुछ स्थानीय लोग कहते हैं कि बरेली तो झुमके के लिए प्रसिद्ध नहीं है। पर इन गीतों ने झुमके को चर्चा में ला दिया। पर ऐसा नहीं कभी बरेली में झुमके बनते थे। किस्म किस्म के झुमके। और इनकी दूर दूर तक प्रसिद्धि थी। पर अब यहां झुमके कुछ खास नहीं बनते। पर बरेली के बाजार में झुमके के बोर्ड लगे हुए दिखाई देते हैं। अब एक प्रस्ताव आया कि बरेली के किसी चौराहे पर एक विशाल झुमका स्थापित किया जाए।
साल 2020 के फरवरी में बरेली के परसाखेड़ा तिराहे का नाम झुमका तिराहा रखा गया। अब यहां पर एक विशाल झुमका स्थापित किया गया है। इस पर 20 लाख रुपये खर्च आया है। तो फिल्मी पहचान अब असली बन गई है।
बरेली डोर माझा के लिए भी जाना
जाता है। पतंग में इस्तेमाल होने वाले डोर माझा का यहां पर कुटीर उद्योग के तौर पर
निर्माण होता है। इसकी मांग गुजरात समेत देश के दूसरे राज्यों में भी रहती है। मकर
संक्रांति से पहले तो बरेली के माझे की मांग दस गुना तक बढ़ जाती है।
बरेली के माझे को पिछले कुछ सालों से चीन के बने डोर माझे से चुनौती मिलने लगी। दरअसल चीन के माझे नायलान, सिंथेटिक धागे के बने होते हैं। इनमें सीसा अलग से मिलाया जाता है। भले ही ये मजबूत होते हैं, पर बड़े खतरनाक भी हैं। इनसे बड़ी संख्या में लोगों को गरदन कट जाने और मौत की खबरें आई हैं। इसके बाद ऐसे माझे के निर्माण और बिक्री पर रोक लगी हुई है। हालांकि बरेली में बनने वाले माझे चीन के माझे की तरह खतरनाक नहीं होते।
बरेली के माझे को पिछले कुछ सालों से चीन के बने डोर माझे से चुनौती मिलने लगी। दरअसल चीन के माझे नायलान, सिंथेटिक धागे के बने होते हैं। इनमें सीसा अलग से मिलाया जाता है। भले ही ये मजबूत होते हैं, पर बड़े खतरनाक भी हैं। इनसे बड़ी संख्या में लोगों को गरदन कट जाने और मौत की खबरें आई हैं। इसके बाद ऐसे माझे के निर्माण और बिक्री पर रोक लगी हुई है। हालांकि बरेली में बनने वाले माझे चीन के माझे की तरह खतरनाक नहीं होते।
महान शायर शकील बदायूंनी तो रहने वाले बदायूं के थे। बदायूं बरेली से 50 किलोमीटर दूर है। पर इस अजीम शायर के नाम पर बरेली रेलवे स्टेशन पर हिंदी पुस्तकालय बना हुआ है। यह शायर को याद रखने का बेहतरीन तरीका है। कौमी एकता के इस महान शायर ने हिंदी फिल्मों का सबसे लोकप्रिय भजन को कलमबद्ध किया था... याद है ना फिल्म बैजू बावरा... मन तड़पत हरि दर्शन को आज... इसे स्वर दिया मो. रफी ने तो संगीत से संवारा नौशाद साहब ने।
आला हजरत की दरगाह पर
बरेली के बड़ा बाजार के पास
सूफी संत आला हजरत की दरगाह है। यहां पर देश भर से लोग जियारत करने आते हैं। कौन
थे आला हजरत। अहमद रजा खान,
जिनको आमतौर पर लोग अहमद रजा खान बरेलवी के नाम से जानते हैं उन्हे
सम्मान से आला हजरत कहा जाता है। आला हजरत ब्रिटिश कालीन भारत के इस्लामी विद्वान,
न्यायवादी, धर्मविज्ञानी, तपस्वी, सूफी और समाज सुधारक थे। वे बरलेवी आंदोलन के
संस्थापक थे। अहमद रजा खान ने कानून, धर्म, दर्शन और विज्ञान सहित कई विषयों पर लेखन भी किया। उनका जन्म 14 जून 1856
को हुआ था। उनका इंतकाल 28 अक्तूबर 1921 को बरेली में ही हुआ। वे कांधार के पठान
परिवार से आते थे। वे मुगलकाल में भारत आए थे। महज 13 साल की उम्र में वे मुफ्ती
घोषित कर दिए गए थे। कहा जाता है कि अपने जीवन काल में उन्होंने 55 विषयों पर 1000
से अधिक पुस्तकों की रचना की।
आला हजरत की दरगाह बरेली शहर के
बड़ा बाजार के पास तंग गलियों में स्थित है। यहां सालों भर हर रोज लोग जियारत करने
पहुंचते हैं। दरगाह के आसपास सुरमा और सुरेमादानी की खूब दुकाने हैं। गली में ताजे
गुलाब की पंखुड़ियों की खुशबू आती रहती है। यहां पहुंचने वाले लोग दरगाह पर गुलाब
के फूल चढ़ाते हैं।
कैसे पहुंचे – बरेली रेलवे
स्टेशन से दरगाह की दूर 4 किलोमीटर के आसपास है। बिहारीपुर- मलूकपुर-
कासगरान-सौदागरान होते हुए आप आला हजरत पहुंच सकते हैं। आला हजरत के बगल में ताजुशरिया
दरगाह भी है।
बरेली की विषय में रोचक जानकारी देता आलेख। कभी उधर का चक्कर लगा तो अवश्य जाऊँगा।
ReplyDeleteजरूर जाएं
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