इस बार अपने गांव
सोहवलिया खुर्द गया तो एक बार फिर ढेर सारी पुरानी यादें ताजा हो गईं। अपने एकमात्र जीवित दादा जी श्री भुवनेश्वर सिंह का आशीर्वाद
मिला। वे 90 के पार हैं। पर 1989 में वायुसेना में फ्लाइंग आफिसर के पद से रिटायर होने के बाद उन्होंने अपने गांव में आकर रहना तय किया। आज वे गांव में मजे
से रह रहे हैं।
मेरे दादा जी
प्रयाग सिंह 1984 में इस दुनिया को छोड़ गए। पर उनकी यादें हमेशा साथ चलती हैं।
प्रेरणा बनकर रास्ता दिखाती हुई। भले ही वे ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे पर बहुमुखी
प्रतिभा के धनी थे। किसान थे मेरे दादाजी। पर जब शहर जाते शानदार धोती, सिर पर
बड़ा सा मुरेठा बांधते। हाथ में बैग और कंधे पर गमछा लिए किसी नेता सदृश नजर आते।
पर उनकी रुचि नेतागिरी में नहीं थी। पर समाजसेवा में थी। शादी के लिए जोड़ियां
मिलाने में अगुवा की भूमिका निभाते। विवादों के निपटारे की पंचायती में आगे रहते।
मौका मिलता तो दादा जी खूब बातूनी भी थे। वे बडे घुम्मकड़ भी थे। पुराना शाहाबाद ( भोजपुर, रोहतास, बक्सर, कैमूर ) के लगभग सभी गांवों के बारे में जानते थे। ज्यादातर का वे दौरा भी कर चुके थे। कई गांवों की सैकड़ों कहानियां सुनाते। दादा जी को कई भोजपुरी लोकगीत कंठस्थ थे। वे कभी बनारस के माधोदास के धरहरा की कहानी सुनाते तो कभी बर्मा यात्रा की।
मौका मिलता तो दादा जी खूब बातूनी भी थे। वे बडे घुम्मकड़ भी थे। पुराना शाहाबाद ( भोजपुर, रोहतास, बक्सर, कैमूर ) के लगभग सभी गांवों के बारे में जानते थे। ज्यादातर का वे दौरा भी कर चुके थे। कई गांवों की सैकड़ों कहानियां सुनाते। दादा जी को कई भोजपुरी लोकगीत कंठस्थ थे। वे कभी बनारस के माधोदास के धरहरा की कहानी सुनाते तो कभी बर्मा यात्रा की।
तो ये सोहवलिया
हमारा आदिम गांव नहीं है। हमारा पुरखे भोजपुर जिले में पीरो से पश्चिम नाढ़ी गांव
से पाही करके यहां आए थे। थोड़ा पीछे चलते हैं मेरे परदादा जगदेव सिंह थे। नाढ़ी
गांव के रहने वाले। उनकी ससुराल भोजपुर जिले के बरनांव गांव में थी। ये स्मृतियां
मैं खुद से साझा कर रहा हूं। ताकि सनद रहे।
नाढ़ी गांव छोड़कर
हमार पुरखे सोहवलिया इसलिए 1927 में आए ताकि यहां जमीन का बड़ा टुकड़ा मिले खेती
करने को। वैसे मेरे परदादा समृद्ध किसान थे। यहां पर गोरी और भोखरी गांव के राजपूत
जमींदारों से मेरे चार परदादाओं को जमीन मिली। खेती का धंधा अच्छा चला। खेती के
साथ बडे पैमाने पर गौ पालन भी होता था।
तो मेरे परदादा
चार भाई थे। जगदेव सिंह, बलदेव सिंह, राम लखन सिंह और मुखराज सिंह। इन चारों नामों
को सुनकर ही लगता है कि ब्रिटिशकालीन भारत में हमारा परिवार काफी सुशिक्षित था।
सबसे छोटे परदादा मुखराज सिंह पहलवानी करते थे। इलाके के पहलवानों में उनका नाम
था। तो मेरे परदादा के पांच बेटे हुए। सबसे बड़े सूर्यनाथ सिंह, उसके बाद हरिभजन
सिंह उसके बाद प्रयाग सिंह, फिर विश्वनाथ सिंह और आखिरी रघुनाथ सिंह। मेरे परदादा
के बारे मेरे पिता जी श्री कन्हैया सिंह
बताते हैं कि उनकी मृत्यु 1946 में हुई। आंगन में खाट पर सो रहे थे। सोते सोते ही
उपर वाले का बुलावा आ गया। कोई कष्ट नहीं। परदादा जगदेव सिंह का खुदवाया हुआ कुआं
आज भी हमारे गांव स्थित है।
मेरे सबसे बड़े
दादा सूर्यनाथ सिंह पढ़े लिखे व्यक्ति थे। कद काठी लंबी और आवाज बुलंद। पर 1927 के
बाद वे गांधी जी से प्रभावित होकर स्वतंत्रता सेनानी हो गए। घर छोड़कर आजादी के
आंदोलन की रैलियों में शामिल होने लगे। बापू के प्रभाव में आकर शाकाहारी हो गए।
गांव के लोगों को भी शाकाहारी बनने के लिए प्रेरित करने लगे। वे गांव घर को कम समय
दे पाते थे। उनके पास किताबों की विशाल लाइब्रेरी थी। खूब पढ़ाकू भी थे। पर 1942
के आंदोलन में वे जेल गए। उनकी जेल में ही सेहत खराब होने के बाद मृत्यु हो गई। पिता
जी बताते हैं कि एक बार आग लगने से उनकी लाइब्रेरी की सभी किताबें जल गईं। उनके
साथ दस्तावेज भी जल गए। अधजली किताबों पर उनके हस्ताक्षर बचे रहे। अब वे भी किसी
के पास नहीं हैं।
बड़े दादा
स्वतंत्रता सेनानी सूर्यनाथ सिंह का विवाह सूर्यमुखी देवी से हुआ था। वे दिनारा के
पास के एक गांव की रहने वाली थीं। दादा जी की मृत्यु के बाद उनकी शादी छोटे भाई
हरिभजन सिंह से करा दी गई। पर कुछ दिनों बाद हरिभजन सिंह भी स्वर्ग सिधार गए। इन
दोनों बड़े दादा लोगों की कोई संतान नहीं हुई। हां दादी आठवीं कक्षा तक पढ़ी लिखी
थीं। तो उनकी नौकरी प्राथमिक विद्यालय में मास्टर के तौर पर लग गई। वे 1980 के बाद
तक नौकरी करती रहीं। लंबे समय तक बसपुरा के प्राथमिक विद्यालय में पदस्थापित रहीं।
बचपन में दादी की उंगलियां पकड़ कर मैं उस स्कूल में पढ़ने भी जाता था।
एक बार फिर बात
मेरे दादा जी प्रयाग सिंह की। दादा जी की ससुराल कोआथ के पास इटवा गांव में थी। मेरी
दादी का नाम रामरति देवी था। पर दादी का निधन 1950 में ही हो गया। तब मेरे पिता जी
चार साल से कुछ ज्यादा उम्र के रहे होंगे। इसलिए उन्हें भी दादी की ज्यादा याद
नहीं है। दादा जी की चार बेटियां हुई और एक बेटे। दादाजी ने खेती किसानी करते हुए
तमाम मुश्किलात के बीच अपने बेटे को पढ़ाया। कृषि विज्ञान की पढ़ाई करने के बाद
पिता जी बैंक में अधिकारी बने।
आज हमारे गांव के
तमाम लोग रोजी-रोटी की तलाश में कई शहरों में पलायन कर चुके हैं। पर जब भी गांव
पहुंचता हूं। अपनी गांव की मिट्टी को नमन करता हूं तो दादा परदादाओं को याद करते सहज
गर्व की अनुभूति होती है।
- -------- विद्युत प्रकाश
मौर्य - vidyutp@gmail.com
( ( SOHWALIA DAYS 09, SURYANATH SINGH, JAGDEV SINGH, PRAYAG SINGH )
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