पटियाला सलवार। महिलाओं के बीच
अत्यंत लोकप्रिय। जी हां, शहर के नाम पर पट्टी वाले ढीले-ढाले सलवार की प्रसिद्धि देश भर में है। उसी पटियाला शहर की सड़कों पर हम
घूम रहे हैं।
थोड़ी बात पटियाला शहर की। तो पटियाला नाम बना है नाम पटियाला दो शब्दों पटि और आला जोड़कर। पटि
एक उर्दू शब्द है जो और आला शहर के संस्थापक बाबा आला सिंह के नाम से आता है। इसका मतलब एक 'भूमि की पट्टी' से है। पटियाला ने सन 1947 में देश विभाजन के समय पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों का दिल खोलकर
स्वागत किया। पाकिस्तान से बड़ी संख्या में आए शरणार्थी यहां बसे थे। तत्कालीन
शासक महाराजा यादविंदर सिंह ने पाकिस्तान से आए लोगों को यहां बसाया और सुविधाएं
उपलब्ध करवाईं।
एक बार फिर चलते हैं सलवार की
ओर।
पटियाला सलवार (पट्टियों वाली सलवार) पंजाबी पोशाक का एक हिस्सा है। इसे उर्दू में शलवार भी कहा जाता है। यह आम तौर उत्तर भारत में पंजाब राज्य के शहर पटियाला में महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली पोशाक है। पर यह पटियाला से बाहर निकलकर कई राज्यों में लोकप्रिय हो चुकी है। पटियाला शहर के बाजारों में अभी भी ऐसे रेडिमेड सलवार और उन्हे बनाने वाले दर्जी मिल जाएंगे।
पटियाला सलवार (पट्टियों वाली सलवार) पंजाबी पोशाक का एक हिस्सा है। इसे उर्दू में शलवार भी कहा जाता है। यह आम तौर उत्तर भारत में पंजाब राज्य के शहर पटियाला में महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली पोशाक है। पर यह पटियाला से बाहर निकलकर कई राज्यों में लोकप्रिय हो चुकी है। पटियाला शहर के बाजारों में अभी भी ऐसे रेडिमेड सलवार और उन्हे बनाने वाले दर्जी मिल जाएंगे।
पंजाब की फुलकारी - पटियाला सलवार सूट और फुलकारी एम्ब्रॉएडरी नहीं होती तो शायद भारत का फैशन बेहद नीरस हो सकता था। यह एक
तरह की कढ़ाई है जो चुनरी या दुपट्टे पर हाथ से की जाती है। वैसे तो इस कढ़ाई का
जन्म प्राचीन भारत (अब पाकिस्तान) में हुआ था। पर अब फुलकारी का मतलब पंजाब से है।
फुलकारी से तैयार बड़ी सी चादर शादी विवाह में इस्तेमाल की जाती है। वहीं फुलकारी
को अब कपड़ों में भी इस्तेमाल किया जाने लगा ह। इसमें बेहद कुशल कारीगरी की जरूरत
होती है। अब काफी काम मशीन से भी किया जाने लगा है। पर हाथों से की जाने वाली इस
कढ़ाई की कला को पटियाला के लोगों ने बचाकर रखा है। जब भी पंजाब के हस्तशिल्प की
चर्चा होती है तो सबसे पहले नाम फुलकारी का आता है।
आजकल फुलकारी किए हुए दुपट्टे
का खूब चलन है।पर फुलकारी की शुरुआत कपड़ों पर फूलों की कढ़ाई से हुई। कहा जाता है
कि पंद्रहवीं सदी में जब हीर रांझा की प्रेम कहानी बहुत ही ज्यादा लोकप्रिय हो गई
थी उसी दौर में फुलकारी का आविष्कार हुआ।
पारंपरिक तौर पर फुलकारी को सूती
कपड़े पर बनाया जाता था। पर इसे मोटे सूती कपड़े पर ही बनाया जाता है। इसे हम
खद्दर जैसा कपड़ा भी समझ सकते हैं। खद्दर के कपड़े पर भारी कढ़ाई करना आसान होता
है। ऐसी कढ़ाई को ही फुलकारी कहा जाता था। फुलकारी के भी कई प्रकार हैं। जिस फुलकारी
जिसमें बहुत ज्यादा घनी पढ़ाई होती है उसे बाग फुलकारी कहते हैं। थिरमा फुलकारी
सबसे शुद्ध मानी जाती है। वहीं दर्शन द्वार भी एक तरह की फुलकारी है। इस तरह की
फुलकारी गुरुद्वारे में चढ़ाई जाती है। इस फुलकारी में सिर्फ फूलों का ही नमूना नहीं
बल्की जानवर और इंसानों का भी नमूना शामिल किया जाता है।
अब कंटेंपरेरी फैशन में फुलकारी
कई बदलाव आए हैं। नए जमाने के डिजाइनरों
समय समय पर फुलकारी के साथ कुछ नए एक्सपेरिमेंट भी किए हैं। तो आजकल फुलकारी कई
तरह की देखने को मिलती है। फुलकारी जैसा प्रिंट वाला कपड़ा भी बनाया जाने लगा है।
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विद्युत
प्रकाश मौर्य
( FULKARI, PATIALA, SALWAR , PUNJAB )
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