सामने
एक छोटा सा ताल और सड़क के उस पर दो मंजिला सुंदर सुरूचिपूर्ण घर। ईंट सीमेंट के
बना यह शानदार दो मंजिला घर अमरकथा शिल्पी शरतचंद्र चटोपाध्याय का आवास हुआ करता
था। शरत बाबू यहां 1926 के बाद जीवनपर्यंत रहे।
मैं
जब शरत बाड़ी के लिए आ रहा था तो सोच रहा था कि हमारी तरह कितने लोग आते होंगे। पर
यहां आकर सुखद आश्चर्य हुआ कि एक साहित्यकार का घर देखने भी हर रोज कई सौ लोग आते
हैं। खास तौर पर बांग्ला के शिक्षक और छात्र यहां पहुंचते हैं। एमए में पढ़ रही
सुस्मिता बांग्ला में शरत को पढ़ चुकी हैं। वे अब उनका घर देखने आई हैं।
बाउंड्री
वाल के अंदर हरा भरा परिसर है। परिसर में भी शरत बाबू की प्रतिमा लगी है। यहां
काफी लोग उस प्रतिमा के साथ फोटो खिंचवा रहे हैं। कुछ लोग पारिवारिक चित्र लेना
चाह रहे हैं।
मैं
आगे बढ़ता हूं। बरामदे वाला सुंदर घर है।सबसे पहले बाईं तरफ एक कमरा है जिसमें शरत
बाबू द्वारा इस्तेमाल की गई कुरसी और दूसरे फर्नीचर रखे हैं। वहां मौजूद केयरटेकर
बताते हैं कि यहां शरत बाबू की टैगोर और नेताजी जैसे महान शख्शियतों से मुलाकात
हुई थी। सामने शरत बाबू का शयन कक्ष दिखाई देता है। इसमें अंदर जाने की अनुमति
नहीं है पर दरवाजे से आप अंदर का नजारा देख सकते हैं। इसके बाद दूसरा कमरा। फिर
सीढ़ियों से चलते हैं ऊपर। पहली मंजिल पर कमरों के चारों तरफ गलियारा बना है। यहां
से दूर तक खेत और नदी का किनारा नजर आता है। ऊपरी मंजिल पर भी कुछ शयन कक्ष बने
हैं। घर के पीछे एक आंगन भी है जिसमें रसोई घर और भंडार घर बने हैं।
बताया
जाता है कि शरत बाबू ने जब कहानी उपन्यास लेखन से रायल्टी में अच्छा खासा धन कमा
लिया तब इस आलीशान घर का निर्माण कराया। वे समताबेर में 1926 से रहने लगे। यहीं
रहकर उन्होने राम की सुमति जिसका बांग्ला नाम रामेर सुमति है जैसी लोकप्रिय लंबी
कहानी लिखी । इस कहानी पर हिंदी फिल्म अनोखा बंधन बनी थी।
शरत
बाड़ी से बाहर निकलने पर चाय की दुकान और नजर आती है। एक कप चाय पीकर आगे चलते हैं।
तकरीबन एक किलोमीटर कच्चे रास्ते पर पैदल चलने पर रुपनारायण नदी का किनारा आ जाता
है। यहां रुपनारायण नदी का अनंत विस्तार है। गांव की हरियाली मनमोह लेती है।
वातावरण मनोरम है। यह सब कुछ महसूस करने के बाद यह समझ में आता है कि शरत बाबू ने
क्यों समता बेर को रहने के लिए चुना होगा।
वैसे
शरत बाबू का जन्म बांदेल के पास देवनंदनपुर गांव में हुआ था। 1916 में बर्मा से
लौटने के बाद वे हावड़ा शिबपुर इलाके में दस साल तक रहे। इसके बाद उन्होने समताबेर
गांव में अपना ये घर बनवाया। अब यह शरतचंद्र कुटी के नाम से जाना जाता है।
रुप
नारायण नदी के किनारे पिकनिक सा माहौल है। लोग नए साल की छुट्टियां मनाने यहां पहुंच
रहे हैं। नाच गा रहे हैं और भोजन बना रहे हैं।\
नदी के किनारे हरे भरे आलू के खेत हैं। मैं वहां नारियल पानी पीता हूं। इसके बाद वापस। फिर देउल्टी से लोकल ट्रेन पकड़ता हूं हावड़ा के लिए। शाम की ट्रेन में भीड़ और भी कम है। स्मृतियों में बार बार शरत बाबू गांव और उनका घर है। ऐसा लग रहा है मानो एक बड़ी तीर्थ यात्रा से वापस लौट रहा हूं। उस महान लेखक को नमन।
नदी के किनारे हरे भरे आलू के खेत हैं। मैं वहां नारियल पानी पीता हूं। इसके बाद वापस। फिर देउल्टी से लोकल ट्रेन पकड़ता हूं हावड़ा के लिए। शाम की ट्रेन में भीड़ और भी कम है। स्मृतियों में बार बार शरत बाबू गांव और उनका घर है। ऐसा लग रहा है मानो एक बड़ी तीर्थ यात्रा से वापस लौट रहा हूं। उस महान लेखक को नमन।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक २९/०३/२०१८ की बुलेटिन, महावीर जयंती की शुभकामनायें और ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteशरत जी के घर को देखने की मन में इच्छा है। इस लेख को पढने के बाद मन में ये इच्छा दोबारा बलवती हो गई है। उम्मीद है जल्द ही जाना होगा।
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