गोकर्ण का महाबलेश्वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। अरब सागर के किनारे पश्चिमी घाट पर बने इस
मंदिर को चौथी सदी माना जाता है। इस लिहाज से यह देश के प्राचीनतम शिव मंदिरों में
से एक है। इसे कर्नाटक के सात मुक्तिस्थलों में से एक माना जाता है। कर्नाटक में इस मंदिर में स्थित शिवलिंग को उतना ही पवित्र माना जाता है
जितना काशी के बाबा विश्वनाथ को। मंदिर का निर्माण शास्त्रीय द्रविड़ शैली में
हुआ है। निर्माण में ग्रेनाइट पत्थरों का इस्तेमाल किया गया है। गर्भगृह का आकार
वर्गाकार है। मंदिर का मुख्य द्वार अरब सागर की ओर है। मंदिर के उत्तर में गंगावली
नदी बहती है। इसलिए गोकर्ण को दक्षिण की काशी भी कहते है।
गोकर्ण में भगवान शंकर का आत्मतत्व लिंग है। शास्त्रों में गोकर्ण तीर्थ की बड़ी महिमा है। यहां के विग्रह
को महाबलेश्वर महादेव कहते हैं।
मंदिर के अंदर पीठ स्थान पर अरघे के अंदर आत्मतत्व लिंग के मस्तक का अग्रभाग
श्रद्धालुओं के दृष्टि में आता है। उसी की यहां पूजा होती है। यह मूर्ति मृग
श्रृंग के समान है।
महाबलेश्वर मंदिर से थोड़ा पहले
सिद्ध गणपति का मंदिर है। कहा जाता है इन गणपति के मस्तक पर रावण द्वारा प्रहार
किए जाने का चिन्ह है। इन गणपति के दर्शन करने के बाद ही आत्म तत्व लिंग के दर्शन
पूजन की विधान है। गोकर्ण का यह मंदिर श्री रामचंद्रपुर मठ के अधीन आता है। मठ इस
मंदिर का प्रबंधन देखता है। जगदगुरु शंकराचार्य श्री राघवेश्वर भारती इसके वर्तमान
पीठाधीश हैं। यह अद्वैत पथ का मठ शिवमोगा जिले के होसांगरा में सरस्वती नदी के तट
पर स्थित है। दक्षिण के तमाम मंदिरों की तरह यहां भी अलग अलग पूजन का सेवा शुल्क
तय है।
गोकर्ण महाबलेश्वर मंदिर के
परिसर में ही मंदिर के पीछे ताम्र गौरी यानी मां पार्वती का मंदिर है। मंदिर प्रबंधन की ओर से रोज
सुबह 11.30 बजे से 1.30 बजे तक निःशुल्क प्रसाद भोजन की सेवा भी श्रद्धालुओं के
लिए संचालित की जाती है। मंदिर के आंतरिक भाग में फोटोग्राफी निषिद्ध है।
खुलने का समय -
मंदिर सुबह 6 बजे से दोपहर 12 बजे तक खुलता है। शाम को मंदिर 5 बजे से 8 बजे तक
खुला रहता है। मंदिर में आने वाले श्रद्धालु पहले अरब सागर में स्नान करते हैं,
फिर गणपति की पूजा करने के बाद महाबलेश्वर मंदिर में प्रवेश करते हैं। कार्तिक के
महीने में और शिवरात्रि के दिनों में इस मंदिर में भारी संख्या में श्रद्धालु
दर्शन करने आते है। कहा जाता है कार्तिक मास में शिव स्वयं यहां आकर वास करते हैं।
कैसे पहुंचे –
गोकर्ण बस स्टैंड से मंदिर तकरीबन एक किलोमीटर है। पैदल चलते हुए पहुंच सकते हैं।
गोकर्ण रोड रेलवे स्टेशन से मंदिर की दूरी 9 किलोमीटर है। वहीं कोंकण रेलवे के
कुमटा रेलवे स्टेशन से गोकर्ण की दूरी 32 किलोमीटर तो अंकोला से दूरी 26 किलोमीटर
है।
गोकर्ण महाबलेश्वर की कथा –
कहा जाता है कि भगवान शिव एक बार मृग स्वरूप बनकर कैलास से प्रस्थान कर गए। देवगण
उन्हें ढूंढते हुए उस मृग के पास पहुंचे। भगवान विष्णु,
ब्रम्हाजी तथा इन्द्र ने मृग के सींग पकड़ लिए। मृग तो अदृश्य हो
गया, किंतु देवताओं के हाथ में सींग के तीन टुकड़े रह गए।
विष्णु और ब्रम्हाजी के हाथ में आए टुकड़े में सींग का मूल भाग और मध्य भाग
गोकर्णनाथ और श्रृंगेश्वर में स्थापित हुए। इन्द्र के हाथ में सींग का अग्रभाग था।
इसे इन्द्र ने स्वर्ग में स्थापित किया।
वहीं कुछ विद्वानों कहते हैं कि
रावण की माता कैकसी बालू का पार्थिव लिंग बनाकर पूजन करती थी। समुद्र किनारे पूजन
करते समय उसका बालू का लिंग समुद्र की लहरों से बह गया। इससे वह दुखी हुईं। माता
को संतुष्ट करने के लिए रावण कैलास गए। वहां तपस्या करके उसने भगवान शंकर से
आत्मतत्व लिंग प्राप्त किया। रावण जब गोकर्ण क्षेत्र में पहुंचा,
तब संध्या होने को आ गई।
उधर, देवताओं में रावण के पास
आत्मतत्व लिंग चले जाने के कारण चिंता थी। देव माया से रावण को शौच की तीव्र इच्छा
हुई। देवताओं की प्रार्थना से गणेश वहां रावण के पास ब्रम्हचारी के रूप में
पहुंचे। रावण ने उनके हाथ में वह लिंग विग्रह दे दिया और नित्य कर्म में लग गया।
इधर मूर्ति भारी होने लगी। ब्रम्हचारी बने गणेशजी ने तीन बार नाम लेकर रावण को
पुकारा और उसके न आने पर मूर्ति पृथ्वी पर रख दी।
रावण जब शुद्ध होकर पहुंचा बहुत
परिश्रम के बाद भी मूर्ति को उठा नहीं सका। खीझकर रावण ने गणेशजी के मस्तक पर
प्रहार किया और लंका चला गया। उसके बाद से यह शिवलिंग गोकर्ण में स्थापित है। वहीं
रावण के प्रहार से व्यथित गणेशजी वहां से चालीस कदम दूर जाकर खड़े हो गए। इसके बाद
भगवान शंकर ने प्रकट होकर उन्हें आश्वासन दिया और वरदान दिया कि तुम्हारा दर्शन
किए बिना जो मेरा दर्शन पूजन करेगा, उसे उसका पुण्यफल प्राप्त नहीं होगा। ( मंदिर की वेबसाइट - http://www.srigokarna.org/en )
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विद्युत प्रकाश
मौर्य
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