सन 1853 में भारत में जब मुंबई से थाणे के बीच पहली
बार रेल चली तो यह एक आश्चर्यजनक घटना थी। पर अगले दो दशक में देश के कई हिस्सों
में रेल की सिटी पहुंच गई। न सिर्फ लोग रेलगाड़ियों के सफर का आनंद ले रहे थे, बल्कि
लोकगीतों और गीतों रेलगाड़ियों की चर्चा सुनने को मिली। हिंदी और भोजपुरी में कई
गीत और कविताएं रेलगाड़ियों पर लिखी और गाई गईं। तो आइए कुछ गीतों की चर्चा करते
हैं।
हिंदी के महान कवि वाराणसी के भारतेंदु
हरिश्चंद्र ने रेलवे के बारे में कुछ इस तरह लिखा।
धन्य किहिन विक्टोरिया जिन्ह
चलाईस रेल, मानो जादू किहिस दिखाइस
खेल... ( भारतेंदु हरिश्चंद्र)
पैसे लेके पास भगावे,
ले भागे मोहि खेले खेल, का सखि साजन, ना सखि रेल।
तो अब भोजपुरी का एक और लोकगीत
सुनिए। इस गीत को लखनऊ की मशहूर लोक गायिकी मालिनी अवस्थी ने अपनी मधुर आवाज में की बार
गाया है।
रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे ।
जौन टिकसवा से बलम मोरे जैहें, रे सजना मोरे जैहें,
पानी बरसे टिकस गल जाए रे, रेलिया बैरन ।।
जौने सहरिया को बलमा मोरे जैहें, रे सजना मोरे जैहें,
आगी लागै सहर जल जाए रे, रेलिया बैरन ।।
जौन सहबवा के सैंया मोरे नौकर, रे बलमा मोरे नौकर,
गोली दागै घायल कर जाए रे, रेलिया बैरन ।।
जौन सवतिया पे बलमा मोरे रीझे, रे सजना मोरे रीझें,
खाए धतूरा सवत बौराए रे, रेलिया बैरन ।।
और अब एक कवि कविता जो रेल
गाड़ी के पैसेंजर ट्रेन में भीड़ का चित्रण करते हैं। क्या शानदार शब्द चित्र
खींचा है - इलाहाबाद के चर्चित कवि कैलाश गौतम ने – अमवसा के मेला कविता में रेल गाड़ी में भीड़ का चित्रण
करते हैं।
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा
एहर गुर्री-गर्रा ओहर लोली लोला
अ बिच्चे में हउवै सराफत से बोला
चपायल ह केहू, दबायल हौ केहू
अ घंटन से उप्पर टंगायल ह केहू
केहू हक्का-बक्का, केहू लाल-पीयर
केहू फनफनात हउवै कीरा के नीयर
अ बप्पा रे बप्पा, अ दइया रे दइया
तनी हमें आगे बढ़े देत्या भइया
मगर केहू दर से टसकलै न टसकै
टसकलै न टसकै, मसकले न मसकै
छिड़ल हौ हिताई-नताई क चरचा
पढ़ाई लिखाई, कमाई क चरचा
दरोगा क बदली करावत हौ केहू
अ लग्गी से पानी पियावत हौ केहू
अमावास के मेला अमावस क मेला
एक भोजपुरी फिल्म आई थी लागी
नाही छूटे रामा. उसके के गीत में रेल गाड़ी की चर्चा कुछ इस तरह से शुरू होती है।
छुक छुक गाडी, धदे पइसा, चल कलकत्ता (लाही नाही छुटे रामा )
एक युवा कवि की कविता सुनिए....
कविता - लोहे के गाड़ी लोहे के
पटरी, जाए के बा टाटा नगरी
बचपन में स्कूली कोर्स में एक
कविता थी
रेल हमारी, लिए सवारी, काशी जी
से आई है।
भोजपुरी के गीतकार उमाकांत
वर्मा फिल्म पिया के प्यारी में एक गीत लिखते हैं – आइल तूफान मेल गड़िया हो साढे
तीन बजे रतिया....
अगर हिंदी फिल्मों की बात करें
तो इसके कई गीत रेलगाड़ियों के आसपास घूमते हैं। साल 1974 की फिल्म दोस्त का गीत
सुनिए - गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही
है, चलना ही जिन्दगी है, चलती ही जा
रही है...इसे गाया था बड़े भाव से किशोर कुमार ने। ये फिल्म दुलाल गुहा ने बनाई
थी।
एक और फिल्मी गीत देखिए - छुक छुक
छुक छुक रेल चली . चुनू मुनू आए तो ये खेल चली ( 1959 में बनी फिल्म सोने की
चिड़िया का ये गीत बच्चों की लोरी की शैली में है।
अशोक कुमार की फिल्म आशीर्वाद (
1968 ) में ये गीत देखिएगा – रेलगाड़ी रेलगाड़ी, रेलगाड़ी रेलगाड़ी, छुक छुक छुक
छुक बीच वाले स्टेशन बोले रुक रुक रुक। इस गीत को अशोक कुमार ने खुद अपनी आवाज में
ही गाया है। संगीतबद्ध किया था वसंत देसाई ने। गीत के लेखक थे हरिंद्रनाथ
चट्टोपाध्याय। इस गीत की आगे की लाइनें
सुनिए - बीच वाले स्टेशन बोलें, रुक रुक रुक रुक , ब्रह्मपुर धरमपुर
ब्रह्मपुर , मांडवा खंडवा , रायपुर
जयपुर , तालेगांव मालेगांव ,
नेल्लोर वेल्लोरे, शोलापुर,कोल्हापुर , कुक्कल डिंडीगुल , मच्छलीपट्नम बींबलीपट्नम , ऊंगोल नंदीगुल , कॉरेगांव, गोरेगांव , ममदाबाद अमदाबाद
अमदाबाद ममदाबाद, शोल्लुर कोन्नुर शोल्लुर कोन्नुर, छुक छुक छुक छुक।
ये गीत पूरी तरह बच्चों का गीत
था। इस गीत पर नन्हे मुन्ने बच्चों ने खूब मजा लिया है। क्या आपको भी कोई रेलगाड़ी
वाला गाना या कोई कविता याद आती है तो बताइए ना।
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विद्युत
प्रकाश मौर्य ( RAIL, MOVIE SONGS, POEMS, BHOJPURI )
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