मेरी बुआजी के सबसे बड़े बेटे हैं
संतोष भैया। मार्च में उनका फोन आया। बताया कि बेटे संजीत की शादी 7 मई को है और
तिलक 5 मई को होगा। उनका आमंत्रण सुनकर मुझे याद आया कि आखिरी बार मैं बुआ जी के
गांव में 1995 में गया था जब मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमए कर चुका था और
दिल्ली आने की तैयारी कर रहा था। तब एक भाई अभय का विवाह था। बारात गई थी संझौली
से पश्चिम तिलईं गांव में। तिलईं गांव की इस शादी के बाद मैं अपने बीएचयू के साथी अनिल सिंह की बहन की शादी में बहुआरा गांव पहुंचा था। ये गांव दिनारा और नटवार के बीच है। इस आमंत्रण के साथ पुरानी यादें ताजा हो गईं।
तो मैंने तय कि इस बार शादी में चरपुरवा चलना ही है। आखिरी 22 साल में परिवारों में और गांव में काफी कुछ बदल गया होगा न। अगर आप गांव और रिश्तेदारियों में लंबे अंतराल पर जाते हैं तो लोग आपको पहचानते तक नहीं। साथ आप अपनी मिट्टी, आचार व्यवहार संस्कृति से भी कटते जाते हैं। तो देश के अलग अलग हिस्सों के दौरा के बाद अब बुआ जी के उस गांव चरपुरवा टोला (शिवगंज) जाने की मौका था जो मेरे बचपन का प्रिय गंतव्य हुआ करता था। आम, महुआ, कटहल के हरे भरे पेड़, ताड़ के बगान।
तो मैंने तय कि इस बार शादी में चरपुरवा चलना ही है। आखिरी 22 साल में परिवारों में और गांव में काफी कुछ बदल गया होगा न। अगर आप गांव और रिश्तेदारियों में लंबे अंतराल पर जाते हैं तो लोग आपको पहचानते तक नहीं। साथ आप अपनी मिट्टी, आचार व्यवहार संस्कृति से भी कटते जाते हैं। तो देश के अलग अलग हिस्सों के दौरा के बाद अब बुआ जी के उस गांव चरपुरवा टोला (शिवगंज) जाने की मौका था जो मेरे बचपन का प्रिय गंतव्य हुआ करता था। आम, महुआ, कटहल के हरे भरे पेड़, ताड़ के बगान।
विशाल
बगीचे और गर्मी में भी हरियाली का सानिध्य। ये सब कुछ चरपुरवा को खास बनाते हैं। काव
नदी और सोन के बीच का इलाका है। बलुआही मिट्टी है। पानी का स्तर काफी ऊपर है।
रोहतास जिले का बेहतरीन इलाका है। स्कूली जीवन में कई बार बुआ जी के गांव जाकर कुछ दिनों के लिए रहा
था। उसकी स्मृतियां आज भी ताजा है। लाल रंग की छाली वाली शानदार घर की बनी दही के
साथ पराठे खाने का वो आनंद और कहां था।
मैं गया जंक्शन से सुबह 10.10
पर खुलने वाली डेहरी ओनसोन पैसेंजर में सवार हुआ। ये ट्रेन पीछे धनबाद से आती है
इसलिए भरी हुई है। कई डिब्बे चेक करने के बाद एक डिब्बे में जगह मिल गई। ट्रेन तय
समय पर खुल गई। गया स्टेशन पर मैंने 10 रुपये का मीठा पपीता खाया। गया से सासाराम
के बीच बचपन में अनगिनत बार ट्रेन का सफर किया है। वही सभी स्टेशन एक बार फिर आंखों के
सामने थे। गुरारू, रफीगंज, फेसर। बचपन में मैं फेसर नाम सुनकर खूब हंसता था।
अनुग्रह नारायण रोड बिहार के औरंगाबाद का निकटतम स्टेशन है। ये इलाका नक्सल
प्रभावित रहा है। कई बार नक्सली ट्रेन के साथ भी वारदातें कर चुके हैं। पर मुझे
पैसेंजर में चलते हुए सारे मेहनतकश चेहरे नजर आते हैं।
गया से डेहरी 85 किलोमीटर
है। सोन नगर जंक्शन से एक लाइन डॉल्टेनगंज के लिए चली जाती है। ट्रेन सोन नदी पर बने
3 किलोमीटर लंबे रेल पुल को पार कर डेहरी ओन सोन स्टेशन समय पर पहुंच जाती है। अब
डेहरी जंक्शन नहीं है, पर कभी डेहरी रोहतास लाइट रेलवे के कारण यह जंक्शन हुआ करता
था। डेहरी स्टेशन से बाहर निकलने पर गर्मी चरम पर है। एक बोतल कोला पीने के बाद
राजपुर जाने वाली बस में बैठ जाता हूं। राजपुर यहां से 20 किलोमीटर है। रास्ते में
बांक,अकोढी गोला जैसे गांव बाजार आते हैं। 40 मिनट बाद मैं राजपुर बाजार में हूं। यहां
से चरपुरवा 5 किलोमीटर है, कभी हम ये दूरी पैदल तय करते थे। पर इस बार भैया ने
अपने एक भाई को मोटरसाइकिल से भेज दिया है। उनसे फोन पर बाच हुई और हम भरी दोपहरी पहुंच गए चरपुरवा। मां और पिताजी यहां पहले से ही पहुंचे हुए हैं।
गांव
में काफी बदलाव आया है 22 साल में। दो तरफ से सड़कें बन गई हैं। गांव में बिजली भी आ गई
है। नए-नए घर बने हैं। लोगों ने शौचालय,
स्नानागार आदि बनवा लिए हैं। छत पर पानी
टंकी लग गई है। बाथरुम में झरने भी हैं। पावर बैकअप के लिए इनवर्टर भी है। यानी
गांव में शहरों जैसी सभी सुविधाएं। एक खुश करने वाली और बात दिखी कि गांव में
हरियाली अब भी कायम है। बगीचे सलामत हैं। दोपहरी में बचपन याद आ गया। आम के पेड़ पर
टिकोले लगे थे। अब पेड़ पर तो नहीं चढ़ सकता था सो डंडा मार कर टिकोले तोड़े और
कच्चे आम का स्वाद लेने लगा।
गाँव जाने का भी अपना मज़ा है। जानकर अच्छा लगा कि गाँव में साधन तो आये हैं लेकिन हरियाली अभी भी बरकरार है।
ReplyDeleteधन्यवाद
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