बोधगया के
महाबोधि मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर के ठीक पीछे विशाल बोधि वृक्ष स्थित है। बौद्ध धर्म में बोधि वृक्ष का खास महत्व और सम्मान है। इसी
पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे सिद्धार्थ को 623 ईसा
पूर्व में वैशाख मास की पूर्णिमा को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इसलिए इस पवित्र वृक्ष के दर्शन के लिए दुनिया भर से श्रद्धालु आते हैं। श्रद्धालु इस वृक्ष के नीचे बैठ कर घंटो साधना करते हैं।
वृक्ष के चारों तरफ पत्थरों की एक चारदीवारी है। इसे भी सम्राट अशोक के काल का माना जाता है। इस स्थल को वज्रासन ज्ञान स्थली कहते हैं। यहां बोधि वृक्ष की छांव में भी श्रद्धालु घंटों साधना करते दिखाई देते हैं। कई साधक तो पूरे मंदिर परिसर में अलग अलग स्थलों पर बैठकर साधना करते नजर आते हैं।
श्रीलंका भेजी गई टहनियां
कहते हैं कि सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को इसी बोधि वृक्ष की टहनियां लेकर बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए श्रीलंका भेजा था। इसलिए इस वृक्ष की शाखाएं आज भी श्रीलंका में पल्लवित हो रही हैं। श्रीलंका के अनुराधापुरम में आज भी यह बोधिवृक्ष मौजूद है।
कहा जाता है कि सातवीं शताब्दी में बंगाल के राजा शशांक ने जो बौद्ध धर्म का विरोधी था, इस बोधि वृक्ष को उखड़वाने की पूरी कोशिश की, पर उसे अपने कुत्सित प्रयास में सफलता नहीं मिली।
श्रीलंका से लाकर दुबारा लगाया बोधि वृक्ष-

साल 1876 में एक प्राकृतिक आपदा के कारण बोधि वृक्ष भी नष्ट हो गया था। तब 1881 में एलेक्जेंडर कनिंघम ने श्रीलंका के अनुराधापुरम में रखी टहनियों को मंगवाकर वृक्ष लगाया। फिलहाल जो बोधि वृक्ष है वह मूल वृक्ष के चौथी पीढ़ी का माना जाता है। इस प्रकार यह संसार का सबसे पुराना जीवित वृक्ष माना जाता है।
वृक्ष के चारों तरफ पत्थरों की एक चारदीवारी है। इसे भी सम्राट अशोक के काल का माना जाता है। इस स्थल को वज्रासन ज्ञान स्थली कहते हैं। यहां बोधि वृक्ष की छांव में भी श्रद्धालु घंटों साधना करते दिखाई देते हैं। कई साधक तो पूरे मंदिर परिसर में अलग अलग स्थलों पर बैठकर साधना करते नजर आते हैं।
श्रीलंका भेजी गई टहनियां
कहते हैं कि सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को इसी बोधि वृक्ष की टहनियां लेकर बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए श्रीलंका भेजा था। इसलिए इस वृक्ष की शाखाएं आज भी श्रीलंका में पल्लवित हो रही हैं। श्रीलंका के अनुराधापुरम में आज भी यह बोधिवृक्ष मौजूद है।
कहा जाता है कि सातवीं शताब्दी में बंगाल के राजा शशांक ने जो बौद्ध धर्म का विरोधी था, इस बोधि वृक्ष को उखड़वाने की पूरी कोशिश की, पर उसे अपने कुत्सित प्रयास में सफलता नहीं मिली।
श्रीलंका से लाकर दुबारा लगाया बोधि वृक्ष-
साल 1876 में एक प्राकृतिक आपदा के कारण बोधि वृक्ष भी नष्ट हो गया था। तब 1881 में एलेक्जेंडर कनिंघम ने श्रीलंका के अनुराधापुरम में रखी टहनियों को मंगवाकर वृक्ष लगाया। फिलहाल जो बोधि वृक्ष है वह मूल वृक्ष के चौथी पीढ़ी का माना जाता है। इस प्रकार यह संसार का सबसे पुराना जीवित वृक्ष माना जाता है।
मुख्य
विहार के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की सात फीट ऊंची एक मूर्ति है। यह
मूर्ति वज्रासन मुद्रा में है। इस मूर्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे
हुए हैं जो इस मूर्त्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करता हैं। कहा जाता है कि
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राज सिहांसन लगवाया था। सम्राट अशोक ने तो
इसे पूरी पृथ्वी का नाभि केंद्र भी कहा था।
स्मारक स्तंभ - सबसे प्राचीन संरचना है - महाबोधि मंदिर
परिसर में भगवान बुद्ध से जुड़े छह पवित्र स्थल हैं जो दुनिया भर से आने वाले बौद्ध श्रद्धालुओं के आस्था का
केंद्र हैं।
जब सम्राट अशोक ने प्रथम मंदिर का निर्माण कराया तो वहां एक स्मारक
स्तंभ का भी निर्माण कराया।
अत्यंत सुंदर शिल्पकारी से बनाया गया पत्थर का स्मारक स्तंभ अभी भी देखा जा सकता है। जो इस मंदिर की सबसे प्राचीन संरचना मानी जाती है। मंदिर परिसर में इस स्मारक स्तंभ को संरक्षित किया गया है।
बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद कुछ वक्त मंदिर परिसर में ही गुजारा था। उन स्थलों की जानकारी यहां दी गई है। ये सभी स्थल बौद्ध धर्म में अलग अलग महत्व रखते हैं साथ ही अलग अलग संदेश भी देते हैं।
अत्यंत सुंदर शिल्पकारी से बनाया गया पत्थर का स्मारक स्तंभ अभी भी देखा जा सकता है। जो इस मंदिर की सबसे प्राचीन संरचना मानी जाती है। मंदिर परिसर में इस स्मारक स्तंभ को संरक्षित किया गया है।
बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद कुछ वक्त मंदिर परिसर में ही गुजारा था। उन स्थलों की जानकारी यहां दी गई है। ये सभी स्थल बौद्ध धर्म में अलग अलग महत्व रखते हैं साथ ही अलग अलग संदेश भी देते हैं।
अनिमेश लोचन में गुजारा दूसरा सप्ताह- बुद्ध ने ज्ञान
प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़े अवस्था में बिताया था।
यहां से बोधि वृक्ष की ओर अपलक देखते रहे थे। यहां पर बुद्ध की खड़े अवस्था में
एक मूर्ति भी बनी हुई है। इस मूर्त्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है। मुख्य विहार
के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है।
चक्रमण करते हुए तीसरा हफ्ता – भगवान बुद्ध ने इस
स्थान पर ध्यानास्थ चक्रमण करते हुए तीसार सप्ताह बिताया था। यहां पर चबूतरे पर जो कमल पुष्प के
चिन्ह दिखाई पड़ते हैं उनके बारे में कहा जाता है कि वहां वहां भगवान बुद्ध के
चक्रमण करने के दौरान चरण पड़े थे।
जन्म से नहीं
सिर्फ कर्म से ब्राह्मण
अजपाल निग्रोध
वृक्ष – बुद्धत्व की
प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध ने यहां पर अपना पांचवा सप्ताह बिताया था। यह स्थान काफी महत्वपूर्ण संदेश देता है। इसी स्थान
पर भगवान बुद्ध ने एक ब्राह्मण के प्रश्न के उत्तर में कहा था – कोई व्यक्ति जन्म से नहीं बल्कि कर्म से ब्राह्मण
होता है।
राज्यतन्या में गुजारा सातवां हफ्ता – ज्ञान प्राप्ति के
बाद बुद्ध ने यहां अपना सातवां सप्ताह बिताया। यहां बुद्ध दो बर्मी व्यापारियों
तापासु और भालिका से मिले थे। इन्होंने बुद्ध की शिक्षाओं से प्रभावित होकर उनसे
आश्रय देने की इच्छा जताई। उन्होंने बुद्धम शरण गच्छामि और धम्म शरण गच्छामि कहा।
उस समय संघ नहीं बना था। संघम शरम गच्छामि बाद में जुड़ा है। और यही तीन पंक्तियां
बौद्ध धर्म की प्रार्थना बन गई। दोनों बर्मी व्यापारी बुद्ध के पहले अनुयायी बने।
मुचलिंद सरोवर - जहां नागराज ने बुद्ध की रक्षा की – बुद्ध ने छठा सप्ताह महाबोधि विहार के दायीं ओर स्थित मुचलिंद सरोवर के नजदीक व्यतीत
किया था। यह सरोवर चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। इस सरोवर के मध्य में
बुद्ध की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा करता
हुआ दिखाई देता है। इस मूर्ति के संबंध में कथा प्रचलित है कि बुद्ध प्रार्थना में
इतने तल्लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश
में भिंगने लगे तो नागराज मुचलिंद अपने निवास से बाहर आए और उन्होंने अपना फन काढ़
कर बुद्ध की भारी आंधी बारिश से रक्षा की।
रत्नधारा में गुजारा चौथा सप्ताह - महाबोधि विहार के
उत्तर पश्चिम भाग में एक छत विहीन भग्नावशेष है जिसे रत्नाघारा के नाम से जाना
जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्ताह बिताया था।
दंत कथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे इसी दौरान उनके शरीर से एक
प्रकाश की किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा
यहां लगे अपने पताके में किया है।
मंदिर परिसर में मेडिटेशन पार्क - महाबोधि मंदिर परिसर में स्वागत कक्ष के पीछे एक
विशाल मेडिटेशन पार्क बना है। इस पार्क में 25 रुपये का शुल्क देकर ध्यान करने के
लिए जाया जा सकता है। यह एक नई संरचना है जिसे काफी सुंदरता से संवारा गया है।
एक घंटे
ज्यादा महाबोधि मंदिर परिसर में गुजारने बाद बाहर निकलता हूं। मन में अनूठी शांति का एहसास है। बाहर निकलते हुए मंदिर परिसर में
साहित्य बिक्री केंद्र दिखाई देता है, वहां से कुछ
किताबें खरीदता हूं यादगारी के तौर पर और आगे बढ़ जाता हूं। बुद्ध से जुड़े कुछ और स्मृति स्थलों को देखने के लिए...
- vidyut@gmail.com
( आगे पढ़िए – विशाल
बौद्ध प्रतिमा और बोधगया के बौद्ध मठ के बारे में)
( BODHGAYA, BUDDHA, BODHI TREE,
MAHABODHI TEMPLE, MUCHALINDA POND )
बहुत ही अच्छी जानकारी
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