विंध्यगिरी
पर्वत पर बाहुबली के दर्शन के बाद जल्दी नीचे उतरने की इच्छा नहीं होती। पर्वत
शिखर से आसपास का अदभुत सुंदर नजारा दिखाई देता है। छोटा सा श्रवणबेलगोला शहर।
नीचे कल्याणी पुष्करिणी।सामने चंद्रगिरी पर्वत। आसपास हरे भरे खेत। उसमें झूमते नारियल
और केले। बाहुबली के पास आप शाम को छह बजे के बाद नहीं रह सकते। रात को यहां किसी
के भी रहने की मनाही है। हालांकि ऊपर तक बिजली पहुंचा दी गई है। पानी का भी इंतजाम
है। बाहुबली की प्रतिमा एक आंगन में है।इसके चारों तरफ गुफा नुमा संरचना है। इन
गुफाओं में जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। इन
प्रतिमाओं के साथ उनके नाम भी लिखे गए हैं। जैन समाज के एक नुमाइंदा और पुजारी
यहां मौजूद रहते हैं। आप चाहें तो यहां मंदिर के ट्रस्ट को दान दे सकते हैं।
गुल्लकेलि अज्जि का मंडप - मंदिर
के बाहर गुल्लकेलि अज्जि का मंडप बना है। इसका निर्माण बाहुबली प्रतिमा के ढाई सौ
साल बाद 13वीं सदी में कराया गया है। यह एक बुजुर्ग महिला की मूर्ति है। सत्रहवीं
अठारहवीं सदी में मैसूर के अडयार राजाओ ने बाहुबली की प्रतिमा के बाहर बाहरी दीवार
का निर्माण कराया। इसके कारण पर्वत पर यह मंदिर किसी महल सा प्रतीत होता है। यहां
के शिलापट्ट भी लगा है कि जिसमें मैसूर के राजघराने की ओर से दान दिए जाने का भी
उल्लेख है।
मंदिर के बाहरी दीवार पर कन्नड के महान बोपण कवि द्वारा लिखित गोम्मद स्तुति को पत्थरों पर उकेरा गया है। ये तमाम बातें से प्रमाणित करती हैं कि बाहुबली के प्रति अगाध श्रद्धा सिर्फ जैन समाज की नहीं बल्कि हिंदू राजाओं और कवियों की भी रही है।
मंदिर के बाहरी दीवार पर कन्नड के महान बोपण कवि द्वारा लिखित गोम्मद स्तुति को पत्थरों पर उकेरा गया है। ये तमाम बातें से प्रमाणित करती हैं कि बाहुबली के प्रति अगाध श्रद्धा सिर्फ जैन समाज की नहीं बल्कि हिंदू राजाओं और कवियों की भी रही है।
प्रतिमा
से कुछ सीढ़ियां नीचे पत्थरों पर कई शिलालेख देखे जा सकते हैं। इन शिलालेखों को
संरक्षित किया गया है। यहां पर थोड़ा समतल इलाका भी है जहां से आसपास का विहंगम
नजारा कर सकते हैं।
पर गोमतेश्वर
की प्रतिमा से वापस उतरते समय तनिक सावधान रहें। कभी भी तेजी से नहीं उतरें, वरना
आप लुढक सकते हैं। चूंकि सीधी चढ़ाई है इसलिए लुढ़कने का खतरा है। इसलिए धीरे धीरे
कदम बढ़ाते हुए आराम से उतरिए।
दक्षिण में राजस्थानी जैन भोजन का स्वाद लें - आप श्रवणबेलगोला
शहर में खालिस राजस्थानी जैन भोजन का स्वाद ले सकते हैं। विंध्यगिरी पर्वत के आसपास के बाजार में कई जैन भोजनालय हैं। ये भोजनालय
राजास्थानी स्टाइल का बिना लहसुन प्याज वाला शाकाहारी भोजन परोसते हैं। सालों भर
जैन श्रद्धालुओं के यहां आने के कारण इस तरह के भोजनालय यहां संचालित होते हैं। यहां
80 रुपये से लेकर 140 रुपये की थाली उपलब्ध है। श्रवणबेलगोला के बाजार में कुछ
आवासीय होटल भी उपलब्ध हैं।
2300 साल से ज्यादा पुराना शहर - श्रवणबेलगोला
शहर का इतिहास 2300 साल से ज्यादा पुराना है। यह शहर में अपने सुंदर सरोवरों के
लिए जाना जाता रहा है। चंद्रगिरी और विंध्यगिरी पर्वत के बीच कल्याणी सरोवर स्थित
है। चंद्रगिरी पर्वत बस स्टैंड के पास स्थित है। इस पर्वत को चिक्काबेटा यानी छोटा
पहाड़ भी कहते हैं।
इस पर्वत पर भद्रवाहु मुनि और अन्य जैन मुनियों की समाधि है। यह पहाड़ी समुद्र तल से 3052 फीट ऊंची है। यहां एक बड़े प्रांगण में कई स्मारक बने हुए हैं। इस पहाड़ को चंद्रगुप्त मौर्य से जोड़ा जाता है। यहां छठी शताब्दी की बनी चंद्रगुप्त बस्ती बनी है। इसमें छोटे छोटे झरोखों में चंद्रगुप्त मौर्य का जीवन दिखाया गया है। कहा जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लिया था और अपना आखिरी वक्त दक्षिण भारत में आकर यहीं पर गुजारा था। हालांकि इस प्रसंग पर इतिहासकारों में मतभेद है।
इस पर्वत पर भद्रवाहु मुनि और अन्य जैन मुनियों की समाधि है। यह पहाड़ी समुद्र तल से 3052 फीट ऊंची है। यहां एक बड़े प्रांगण में कई स्मारक बने हुए हैं। इस पहाड़ को चंद्रगुप्त मौर्य से जोड़ा जाता है। यहां छठी शताब्दी की बनी चंद्रगुप्त बस्ती बनी है। इसमें छोटे छोटे झरोखों में चंद्रगुप्त मौर्य का जीवन दिखाया गया है। कहा जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लिया था और अपना आखिरी वक्त दक्षिण भारत में आकर यहीं पर गुजारा था। हालांकि इस प्रसंग पर इतिहासकारों में मतभेद है।
वापसी वाया हिरिसावे - अब
वापसी होनी है बेंगलुरू की ओर। श्रवणबेलगोला की सड़कों पर कच्चा आम खाता हूं।
दक्षिण भारत में सालों भर कच्चा आम मिलता है। पांच रुपये में एक साबुत कच्चे आम को
दुकानदार करीने से काटकर पेश करते हैं। वापसी में मुझे सीधी बेंगलुरू की बस मिल गई
है। यह चेनेरायपटना नहीं जाती, बल्कि नए रास्ते से हिरिसावे होकर जाती है। रास्ते
में श्रवणबेलगोला का रेलवे स्टेशन दिखाई देता है। श्रवणबेलगोला में कई जैन संस्थान
भी संचालित किए जाते हैं, जिनमें स्कूल गोशालाएं आदि प्रमुख हैं। रास्ते में बस
फिर एक हाईवे ढाबे पर रुकती है। यहां भी खाने पीने की दरें वाजिब हैं। शाम गहराने तक बसे बेंगलुरु की सीमा में प्रवेश
कर चुकी है।
मौर्य जी आपने लिखा हैं, जैन और हिन्दू, जबकि हम सनातनी, जैन, बोद्ध, आर्यसमाजी, लिंगायत, आदि सभी सभी एक विराट हिन्दू समाज का अंग हैं, आप तो पूरा हिन्दुस्थान घूमते हैं, आपने पुरानी गुफा मंदिर आदि देखे होंगे, उनमे एक ही स्थान पर सनातन, जैन, बोद्ध संस्कृति और मूर्तियों की स्थापना मिलती हैं. यह तो राजनीति हैं जिसने हमें बाँट दिया हैं....
ReplyDeleteजैन, बौद्ध अलग धर्म हैं, हमारे संविधान में उनको अलग धर्म का दर्जा है। हर जैन और बौद्ध विद्वान भी खुद को अलग धर्म के तौर पर देखते हैं।
Deleteचन्द्रगुप्त मौर्य जैन अनुयायी थे और इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि उन्होंने सन्यास के उपरांत जैन मुनियों के साहचर्य में ही अपना जीवन व्यतीत किया । सम्राट चन्द्रगुप्त के नाम पर ही उस स्थान का नाम चन्द्रगिरि रखा गया ।
ReplyDeleteहा हा हा हा पहली टिप्पणी बड़े मन से की तो ब्लोग्गर महाराज रूठ गए , आपका ये अंतर्जालीय पन्ना ,हमेशा की तरह मुझे तो खूब पसंद आया बल्कि मुझे क्या , यायावरी पसंद हर व्यक्ति के लिए तो अनिवार्य रूप से अनुशंशित करूंगा मैं |शुभकामनायें आपको
ReplyDeleteआपका स्नेह साथ है हमेशा , रुठना कैसा .....
Deleteहम भी श्रवणबेलगोला घूमकर आए थे हमें भी जगह बहुत अच्छी लगी यह चंद्रगुप्त मौर्य के बारे में हमें पहली बार पता चला हम श्रवणबेलगोला से हेलीबिडू भी गए थे
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