सोलहवीं सदी में
असम के इतिहास में बड़ी घटना हुई। यह घटना की दो महान संतों की मुलाकात। शंकर देव
और माधव देव की मुलाकात में असम के धार्मिक सामाजिक जीवन में युगांतकारी घटना थी।
इन दोनों संतो और समाज सुधारकों की मुलाकात धोवाहाट में हुई। तब माजुली को अहोम
राज्य में धोवाहाट के नाम से जाना जाता था। यह माजुली का बेलगुरी इलाका था। इस
प्रसिद्ध मिलन को मणिकांचन संयोग के नाम से जाना जाता है। शंकरदेव और माधव देव के
शिष्यों ने माजुली में सत्र जीवन की शुरुआत की। सत्र का मतलब है हिंदू मठ। वैसा मठ
जहां भगत लोग आश्रम जीवन पद्धति में रहकर साधना और भक्ति का जीवन जीते हैं। माजुली
द्वीप पर 65 सत्रों की
स्थापना की गई थी पर ब्रह्मपुत्र में लगातार कटाव के कारण कई सत्र अब खत्म हो चुके
हैं।
माधव देव कौन थे- माधव देव ( 1489-1596 ) एक शाक्त विचारों वाले संत थे। उनपर उनके साले रामदास का प्रभाव था।
रामदास हाल में वैष्णव बने थे। उन्होंने माधव देव को शंकरदेव से मिलवाया। दोनो की
मुलाकात के बाद लंबा संवाद हुआ। इस संवाद के बाद माधव देव शंकर देव द्वारा
प्रवर्तित नाम धर्म के शक्ति को स्वीकार करने लगे। धुवाहाट में ही माधव देव ने
अपने विचारों से कई और लोगों को प्रभावित किया और कीर्तन घोष की रचना की। हालांकि
तत्कालीन ब्राह्मण समाज में उनका विरोध हुआ क्योंकि यह एक ऐसा मत था जो गैर
ब्राह्मणों द्वारा प्रवर्तित किया जा रहा था। उस समय कुछ ब्राह्मणों ने अहोम राजा
सुहांगमुंग को शिकायत की। राजा ने शंकरदेव और माधव देव को अदालत में तलब कर लिया। पर
शाही दरबार के सवालों को दोनों संतो ने सटीक उत्तर दिया जिससे उन्हें राजा ने
ससम्मान बरी कर दिया। इतना ही नहीं इस प्रकरण के बाद अहोम राजाओं से उनके रिश्ते
प्रगाढ़ हो गए। पर बाद में राजा से फिर रिश्ते खराब हुए और शंकरदेव के दामाद हरि
को राजा ने सजा सुनाई। माधव देव को भी एक साल के लिए राजा के आदेश पर कारागार में
डाल दिया गया। इस घटना से शंकरदेव काफी दुखी हुए और वे माधव देव के साथ कूच बिहार
के राज्य की ओर प्रस्थान कर गए। धुवाहाट में शंकरदेव ने धर्मपत्नी प्रसाद नामक ग्रंथ
की रचना की।
माधव देव भी बहुमुखी प्रतिभा के
धनी संत थे। उन्होंने कई ग्रंथ रचे। चोरधारा झूमरा नामक नाटिका को माधवदेव ने तैयार किया था जिसका मकसद बालकृष्ण
के बारे में लोगों को बताना था।
पहला सत्र माजुली में - माधव
देव का जन्म लखीमपुर जिले के नारायणपुर में हुआ था। शंकरदेव और माधव देव की
मुलाकात धुवाहाट (माजुली) जहां हुई थी वहां बेलागुरी सत्र की स्थापना 1618 ईश्वी में
की गई। हालांकि कहा जाता है कि इस सत्र की स्थापना स्वयं शंकरदेव ने एक बेल का
पेड़ लगाकर की थी। शंकरदेव माजुली की धरती पर 14 साल रहे।
नारायणपुर पहुंचा
बेलागुरी सत्र - पर 1947 में यह बेलागुरी सत्र
को माजुली से स्थानांतरित कर नारायणपुर में स्थापित किया गया। दरअसल ब्रह्मपुत्र नदी
में भारी कटाव के कारण बेलागुरी सत्र का इलाका नदी के जल में समाहित हो गया। इसके इस
सत्र को यहां से स्थानांतरित किया गया। नारायणपुर में स्थित बेलागुरी सत्र असम का
एक लोकप्रिय सत्र है जो चालाई नृत्य शैली के लिए जाना जाता है। सत्रहवीं सदी के
बाद माजुली के बार फिर नव वैष्णव मत का बड़ा केंद्र बन गया। वह संत वंशीगोपाल देव
का काल था जब माजुली में कई वैष्णव सत्रों की स्थापना हुई।
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(SHANKARDEV AND MADHAVDEV UNION, MAJULI, ASSAM, SATRA )
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