अंदमान कई आदिवासी
प्रजातियां निवास करती हैं उनमें जारवा के बारे में सबसे ज्यादा चर्चा होती है।
जारवा को लेकर कई मिथ भी प्रचलित हैं। पूरे अंदमान में कुल 225 के आसपास ही जारवा
लोग बचे हुए हैं। कहीं कहीं उनकी संख्या 400 के आसपास भी बताई जाती है। काले रंग के ये जारवा लोग आज भी बिना कपड़ों के रहते हैं। ये लोग
हमारे आपके जैसे इंसानों के साथ घुलना मिलना नहीं चाहते।
आखिर कौन हैं
जारवा। जारवा को अंदमान के मूल निवासी के तौर पर माना जाता है। मानव शास्त्र के
लिहाज से इनका उदभव भारत के बाकी लोगों की तरह नहीं हुआ है। इनकी शरीर रचना कठोर
होती है। ये अफ्रीकी पिग्मी आदिवासियों के समान हैं। ये भी माना जाता है कि कभी
अंदमान की तरफ आए अफ्रीकी जहाजों से ये जारवा लोग यहां आए होंगे।
कहा जाता है कि जारवा लोग अंदमान में 50 हजार साल पहले आए थे। जारवा लोग दक्षिण और मध्य अंडमान के पश्चिम तटीय आरक्षित वन क्षेत्र में रहते हैं। इनका दायरा 693 वर्ग किलोमीटर में फैला है। अब हालात बदल गए हैं। जारवा लोग सभ्य समाज से मित्रतापूर्ण व्यवहार अपनाते हैं। हालांकि उनकी प्राचीनजीवन शैली में कोई बदलाव नहीं आया है। वे लोग अब भी सामुदायिक रूप से अस्थायी किस्म की झोपड़ियों में रहते हैं। वे ताड़ के पत्ते, वृक्ष की छाल, बांस, समुद्री सीप और मूंगा आदि का इस्तेमाल कर अपने लिए वस्त्र और आभूषण तैयार करते हैं।
उल्लासमय नृत्य से खुशी- कभी कभी जारवा लोग खूब उल्लासमय तरीके से नृत्य कर खुशी का इजहार करते हैं। अपने समारोह के दौरान वे फूलों के गहनों से अपना श्रंगार करते हैं। इस दौरान वे पेड़ के पत्तों से बनाया हुआ स्टाइलिश पहनावा भी तैयार करते हैं। वे अपने शरीर और चेहरे पर विशेष प्रकार की मिट्टी का लेप भी लगाते हैं। जारवा लोग मूल रूप से पेड़ो से शहद निकालने का काम करते हैं। वे शिकार करते हैं और फलों का भी संग्रह करते हैं। वैसे शहद ही उनका मुख्य भोजन है। जंगलों को बारे में जारवा लोगों की जानकारी काफी पैनी है। जब कोई जारवा शिकार के लिए निकलता है तो वह बड़ी ही सतर्कतापूर्वक अपनी योजना बनाकर चलता है। वह जहरीले पौधे के रसों का मिश्रण बनाकर अपने शरीर पर लगाते हैं जिससे मक्खियों को भगा सकें। कुछ उसी तरह जैसे हमें मच्छर भगाने के लिए आडोमॉस लगाते हैं।
कहा जाता है कि जारवा लोग अंदमान में 50 हजार साल पहले आए थे। जारवा लोग दक्षिण और मध्य अंडमान के पश्चिम तटीय आरक्षित वन क्षेत्र में रहते हैं। इनका दायरा 693 वर्ग किलोमीटर में फैला है। अब हालात बदल गए हैं। जारवा लोग सभ्य समाज से मित्रतापूर्ण व्यवहार अपनाते हैं। हालांकि उनकी प्राचीनजीवन शैली में कोई बदलाव नहीं आया है। वे लोग अब भी सामुदायिक रूप से अस्थायी किस्म की झोपड़ियों में रहते हैं। वे ताड़ के पत्ते, वृक्ष की छाल, बांस, समुद्री सीप और मूंगा आदि का इस्तेमाल कर अपने लिए वस्त्र और आभूषण तैयार करते हैं।
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(जारवा- चित्र सौ- समुद्रिका मरीन म्यूजियम) |
उल्लासमय नृत्य से खुशी- कभी कभी जारवा लोग खूब उल्लासमय तरीके से नृत्य कर खुशी का इजहार करते हैं। अपने समारोह के दौरान वे फूलों के गहनों से अपना श्रंगार करते हैं। इस दौरान वे पेड़ के पत्तों से बनाया हुआ स्टाइलिश पहनावा भी तैयार करते हैं। वे अपने शरीर और चेहरे पर विशेष प्रकार की मिट्टी का लेप भी लगाते हैं। जारवा लोग मूल रूप से पेड़ो से शहद निकालने का काम करते हैं। वे शिकार करते हैं और फलों का भी संग्रह करते हैं। वैसे शहद ही उनका मुख्य भोजन है। जंगलों को बारे में जारवा लोगों की जानकारी काफी पैनी है। जब कोई जारवा शिकार के लिए निकलता है तो वह बड़ी ही सतर्कतापूर्वक अपनी योजना बनाकर चलता है। वह जहरीले पौधे के रसों का मिश्रण बनाकर अपने शरीर पर लगाते हैं जिससे मक्खियों को भगा सकें। कुछ उसी तरह जैसे हमें मच्छर भगाने के लिए आडोमॉस लगाते हैं।
हिंदी भी बोलते हैं
जारवा - अब जारवा
लोगों के संरक्षण के लिए भारत सरकार ने उनके आवास के आसपास लोगों को तैनात किया
है। असली चुनौती महज दो सौ से कुछ ज्यादा बचे जारवा लोगों को बचाने की है। अपनी
सुरक्षा संरक्षण में लोगों के संपर्क में आने के बाद जारवा लोग हिंदी भी बोलने और
समझने लगे हैं।
एक बार एक जारवा का बच्चा बीमार पड़ गया। आदिवासियों के संरक्षण में लगे लोगों ने इस बच्चे को बचाने के लिए पोर्ट ब्लेयर लाकर अस्पताल में भर्ती कराया। अस्पताल में रहकर यह बच्चा धीरे धीरे ठीक होने लगा। जब ठीक हो गया तो उसे फिर ले जाकर जारवा समुदाय में ही छोड़ दिया गया। इस घटना से जारवा लोगों का सरकारी सिस्टम पर भरोसा काफी बढ़ गया। उनकी खुशी देखने लायक थी। इतने लंबे समय से जारवा लोगों के संरक्षण में लगे सरकारी सिस्टम के लोगों को ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला है कि जारवा लोगों ने अपने समुदाय में किसी किस्म का अपराध किया हो। कई बार ऐसा लगता है कि वे हमारे सभ्य समाज से कई मामलों में कई गुना ज्यादा सभ्य हैं।
एक बार एक जारवा का बच्चा बीमार पड़ गया। आदिवासियों के संरक्षण में लगे लोगों ने इस बच्चे को बचाने के लिए पोर्ट ब्लेयर लाकर अस्पताल में भर्ती कराया। अस्पताल में रहकर यह बच्चा धीरे धीरे ठीक होने लगा। जब ठीक हो गया तो उसे फिर ले जाकर जारवा समुदाय में ही छोड़ दिया गया। इस घटना से जारवा लोगों का सरकारी सिस्टम पर भरोसा काफी बढ़ गया। उनकी खुशी देखने लायक थी। इतने लंबे समय से जारवा लोगों के संरक्षण में लगे सरकारी सिस्टम के लोगों को ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला है कि जारवा लोगों ने अपने समुदाय में किसी किस्म का अपराध किया हो। कई बार ऐसा लगता है कि वे हमारे सभ्य समाज से कई मामलों में कई गुना ज्यादा सभ्य हैं।
जारवा से मिलना
जुलना प्रतिबंधित - जारवा लोगों
के साथ सैलानियों या फिर बाहरी लोगों का मिलना जुलना बिल्कुल निषेधित है। जारवा के
निवास स्थान से जब गाड़ियां गुजरती हैं तो उन्हें धीमी गति से चलाने की मानाही है।
आप फोटो भी नहीं खींच सकते हैं। हां अगर आपको सड़कों पर आते जाते जारवा लोग नजर आ
जाएं तो आपकी किस्मत। हमारे साथ चल रही हैं असम की एक महिला जो बारपेटा के एक
कालेज में पढ़ाती हैं, ने बताया कि उन्हें दो जारवा नजर आ गए। उन्होंने कुछ कपड़े
नहीं पहन रखे था, हां गले में कुछ लटका रखा था।
अगर कोई जानबूझकर
जारवा लोगों से मिलने की कोशिश करे तो कड़ी सजा का प्रावधान है। मैं अपने अंदमान प्रवास के दौरान
टेलीग्राम अखबार में पढ़ता हूं कि चार लोगों को जारवा लोगों से मिलने की कोशिश में
कदमतला थाने की पुलिस ने गिरफ्तार किया है। इस मामले में सात साल तक की सजा का
प्रावधान है।
जारवा और अबरडीन का
युद्ध – जारवा लोगों ने 17
मई 1859 को अंग्रेजों के खिलाफ बड़ा युद्ध लड़ा जिसे अबरडीन के युद्ध के नाम से
जाना जाता है। आज अबरडीन पोर्ट ब्लेयर का प्रमुख बाजार है। अबरडीन के उस युद्ध की
याद में राजीव गांधी वाटर स्पोर्ट्स कांप्लेक्स अबरडीन युद्ध स्मारक बनाया गया है।
दूधनाथ तिवारी और
जारवा - दूधनाथ तिवारी एक
सजायाफ्ता सिपाही थे जो जारवा आदिवासियों के साथ दो साल तक रहे। उन्होंने दो जारवा
लड़कियों लीपा और लीजा के साथ विवाह भी रचाया। दूधनाथ 14वीं अंग्रेज रेजिमेंट के
सिपाही थे। साल 1858-1859 के दौरान उनका जारवा लोगों से संपर्क रहा। हालांकि बाद में दूधनाथ ने जारवा लोगों को लेकर अंग्रेजों से जासूसी की जिसके इनाम में उन्हें वतन वापसी का मौका मिल सका।
अंदमान में आप
जारवा और द्वीप के दूसरे आदिवासी समूहों के बारे में जानकारी मिडल बाजार स्थित
एंथ्रोपोलाजिकल म्यूजियम और हैडो स्थित समुद्रिका जो नौ सेना का संग्रहालय है वहां
से प्राप्त कर सकते हैं। भले आप जारवा लोगों से मिल नहीं सकते पर समुद्रिका
संग्रहालय के सेल्स काउंटर या फिर बाजार से लकड़ी या सैंड स्टोन के बने जारवा मूल
के लोगों के प्रतिकृतियां खरीद कर अपने साथ ले जा सकते हैं। ये नन्हे नन्हे जारवा
100 से 400 रुपये में उपलब्ध हैं। जारवा पर इतिहासकार रामचंद्र कार ने एक शोधपरक पुस्तक भी लिखी है जो अंगरेजी में उपलब्ध है।
जारवा पर एक
रिपोर्ट राज्यसभा टीवी पर - जारवा लोगों पर एक
सुंदर रिपोर्ट राज्यसभा टीवी पर देखने को मिली। इसमें दो जारवा लड़कियों को दिखाया
गया है। किसी तरह की बीमारी होने पर उन्हें पोर्ट ब्लेयर के जीबी पंत अस्पताल में
भर्ती कराया गया है। इस दौरान संवाददाता श्यामसुंदर ने इन जारवा लड़कियों से बात की
है। वे टूटी फूटी हिंदी बोल रही हैं। उन्हें अस्पताल में लाने पर पहली बार कपड़े
पहनाए गए हैं जिसमें वे सहज नहीं महसूस कर रही हैं। मजे की बात इस रिपोर्ट में जारवा लड़कियों को
गालियां देते भी सुना जा सकता है।
- vidyutp@gmail.com
(ANDAMAN, JARWA, KADAMTALA, ABARDEEN WAR, PORT BLAIR )
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