
जैसा
कि सर्वविदित है कि ये केवलादेव का इलाका घना जंगल हुआ करता था। यह भरतपुर के राजा
की शिकारगाह हुआ करता था। मंदिर के पुजारी केवलादेव मंदिर को महाराजा सूरजमल का के
काल का बताते हैं। कहते हैं कि राजा जब इस क्षेत्र में शिकार करने आते थे तो एक
जगह ऐसी थी जहां आकर गाय अपने आप ही दूध देने लगती थी। महाराजा को कौतूहल हुआ कि
ऐसा क्यों होता है। जिस स्थल पर गाय दूध देने लगती थी उसकी थोड़ी सी खुदाई कराई गई
तो देखा गया कि वहां शिव लिंग स्थित है। तब लोगों ने सोचा कि निश्चय ही गाय यहां
आकर महादेव को दुग्धाभिषेक करती है। तब महाराजा के आदेश पर शिवलिंग को अनावृत किया
गया और यहां पर एक छोटा सा मंदिर बना दिया गया। इस मंदिर को केवला देव कहा गया।
केवला देव यानी केवल महादेव ही इस क्षेत्र से स्वामी हैं दूसरा कोई नहीं। इस
केवलादेव के नाम पर इस पार्क का नाम भी केवलादेव रखा गया। पर कई लोगों को कहना है
कि केवलादेव इसलिए भी नाम पड़ा कि यहां कभी केले के पेड़ बहुतायत हुआ करते थे।
हालांकि कई लोग इस सिद्धांत को नहीं स्वीकार करते। पर तकरीबन 300 साल से इस मंदिर में आस्थावान लोग पूजा करते आ रहे हैं। सावन में आसपास के
श्रद्धालु लोग यहां कांवर लेकर आते हैं। तो कई लोग अपनी मनौती लेकर भी केवलादेव के
दरबार में पहुंचते हैं। मंदिर का गर्भगृह छोटा सा है। आसपास में मंदिर के अलावा
कोई निर्माण नहीं है। पर आसपास में झील और हरियाली होने के कारण वातावरण अत्यंत
मनोरम बन पड़ता है। मंदिर प्रांगण में अदभुत शांति मिलती है। महादेव पशु पक्षियों
को भी अपना आशीर्वाद देते हैं।
पुजारी जी का दर्द – केवलादेव मंदिर के पुजारी जी बताते हैं कि यहां प्रशासन की ओर से उन्हे
सिर्फ 800
रुपये साल में एक बार मानदेय के तौर पर मिलता है। मंदिर के पास
पुजारी के रहने के लिए आवास भी नहीं है। मुख्य द्वार से छह किलोमीटर चल कर यहां
आना पड़ता है। पार्क में घूमने आने वाले सिर्फ हिंदू श्रद्धालुओं में से कुछ लोग
ही उन्हें दक्षिणा के तौर पर कुछ राशि देकर जाते हैं। इससे गुजारा चलाना बहुत
मुश्किल है। उनकी कई पीढ़ियां केवलादेव मंदिर में पूजा कर रही हैं। उनकी सरकार से
गुजारिश है कि उनका मानदेय बढ़ाया जाए। कम से कम न्यूनतम मासिक वेतन तो मिले जिससे
वे अपना गुजारा चला सकें। हमें उनकी मांग जायज प्रतीत होती है।
- vidyutp@gmail.com
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