देवगिरी
यानी दौलतबाद का किला औरंगाबाद शहर से 11 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम
दुर्जेय पहाड़ी पर स्थित है। यह किला की किसी तिलिस्म सा लगता है जिसे भेदना
दुश्मन के लिए मुश्किल था। दौलताबाद नाम मुहम्मद बिन
तुगलक द्वारा तब दिया गया था जब सन् 1327 में मुहम्मद बिन तुगलक ने
यहां अपनी राजधानी यहां बसाई थी। यह भारत के सबसे मजबूत किलों में एक यह एक तीन
मंजिला किला है जिसे जीत पाना टेढी खीर था।

कुल 688 फीट ऊंचे इस किले के मुख्य द्वार से सबसे ऊपर की चोटी तक जाने के लिए आपको दो किलोमीटर की मुश्किल पैदल ट्रैकिंग करनी पड़ती है। लिहाजा पानी की बोतलें अपने साथ रखें।

कुल 688 फीट ऊंचे इस किले के मुख्य द्वार से सबसे ऊपर की चोटी तक जाने के लिए आपको दो किलोमीटर की मुश्किल पैदल ट्रैकिंग करनी पड़ती है। लिहाजा पानी की बोतलें अपने साथ रखें।
देवगिरी के
शहर यादव राजा भिलण द्वारा 1187 ईस्वी में इस किले का
निर्माण कराया गया। यह किला लगभग 200 मीटर की ऊंचाई तक के शंकु के आकार की पहाड़ी
पर स्थित है।
पहाड़ी के चारों ओर इसके नीचे की ओर खाइयां और ढलानें इसकी रक्षा करती थीं। दुर्ग गढ़ की बड़ी संख्या के साथ रक्षात्मक दीवारों की तीन लाइनों का निर्माण किया गया है। किले की उल्लेखनीय सुविधाओं खाई, सीधी ढाल हैं। किले मे दुश्मन को रोकने के अनूठे इंतजाम हैं। किले में सात विशाल द्वार आते हैं जहां दुश्मनों से मुकाबले के लिए पर्याप्त इंतजाम हैं।
पहाड़ी के चारों ओर इसके नीचे की ओर खाइयां और ढलानें इसकी रक्षा करती थीं। दुर्ग गढ़ की बड़ी संख्या के साथ रक्षात्मक दीवारों की तीन लाइनों का निर्माण किया गया है। किले की उल्लेखनीय सुविधाओं खाई, सीधी ढाल हैं। किले मे दुश्मन को रोकने के अनूठे इंतजाम हैं। किले में सात विशाल द्वार आते हैं जहां दुश्मनों से मुकाबले के लिए पर्याप्त इंतजाम हैं।
सभी दीवारों
पर तोपें तैनात रहती थीं। आखिरी दरवाजे पर एक 16 फीट लंबी और दो फीट
गोलाकार की मेंडा नामक तोप आज भी मौजूद है। जिसकी मारक क्षमता 3.5 किलोमीटर है और यह तोप अपनी जगह पर चारों ओर घूम सकती है। किले में चांद मीनार, चीनी महल और बारादरी भीतर की महत्वपूर्ण संरचनाएं हैं। किले के शीर्ष पर
शाही निवास, मस्जिद, स्नान घर,
मनोरंज के कमरे आदि बने हैं। किले के पहले प्रवेश द्वार के
बाद बायीं तरफ अंदर एक भारत माता मंदिर भी बनाया गया है।
किले के
चारों ओर गहरी खाई बनाई गई है और उसमें पानी भर दिया जाता था जिसमें मगरमच्छ छोड़
दिए जाते थे। उस समय किले में जाने के लिए चमड़े का पुल बनाया गया था और जब युद्ध
की आशंका होती थी तो पुल हटा लिया जाता था। कहा जाता है कि यदि दुश्मन की सेना
किसी तरह सातों दरवाजे पर पहुंच भी गई तो उसे गहरी खाइयों का सामना करना पड़ता था
जिसमें सैनिकों के उतरते हुए उनके स्वागत के लिए खतरनाक मगरमच्छ तैयार रहते थे।
शानदार चांद मीनार – चांद मीनार की ऊंचाई 63 मीटर है और इसे अलाउद्दीन बहमनी शाह ने 1435 में दौतलाबाद पर विजयी होने के उपलक्ष्य में बनाया था। इसके अंदर सीढ़ियां
बनाई गई हैं जिससे ऊपर तक जाया जा सकता है। वर्ष 1986 में इसके अंदर भगदड़ मच गई जिसमें दो लोगों की मृत्यु हो गई थी उसके बाद
से इसमें अंदर जाना और चढ़ना मना कर दिया गया है।
अंधेरा रास्ता
यानी भूलभुलैया – अंधेरा रास्ता तकरीबन 150 फीट लंबा है।
इसे लोग भूल भुलैया भी कहते हैं। इसे बिना मशाल, टार्च के पार नहीं किया जा सकता। ऊपर की ओर जाती हुई लंबी सुरंग खड़ी
सीढियों द्वारा खड़ी और घुमाव खाती हुई बढ़ती रहती है। इसमें थोड़े-थोड़े अंतराल पर
जो विवर आते हैं वे उन गार्डो के कक्ष हैं जिनके हाथ में सुरंग के इस मार्ग की
कमान थी। सुरंग के मुख पर लोहे का एक शटर है जो छोटे पहियों पर क्षैतिजीय रूप में
एक चोर दरवाजे की भांति विवर को खोलते-बंद करते हुए चलता है।
इस सुरंग का एक सर्वाधिक प्रभावी रक्षा उपाय यह था कि इसमें धुएं के एक अवरोधक की व्यवस्था की गई थी। लगभग आधा रास्ता पार करके एक स्थान पर, जहां सुरंग चट्टान के ऊर्ध्वाधर मुख के पास से होकर गुजरती है, एक सुराख बनाया गया था ताकि लोहे की एक अंगीठी में आग के लिए हवा का प्रवाह बन सके। यह अंगीठी सुरंग में खुलने वाले एक छोटे कक्ष के विवर में स्थापित की गई थी और जब आग सुलगती थी तो सुराख से बहने वाली हवा धुएं को सुरंग में उड़ा देती थी और सुरंग के मार्ग को दुर्गम बना देती थी।
दौलताबाद का किला - ऊंचाई से एक नजर। |
इस सुरंग का एक सर्वाधिक प्रभावी रक्षा उपाय यह था कि इसमें धुएं के एक अवरोधक की व्यवस्था की गई थी। लगभग आधा रास्ता पार करके एक स्थान पर, जहां सुरंग चट्टान के ऊर्ध्वाधर मुख के पास से होकर गुजरती है, एक सुराख बनाया गया था ताकि लोहे की एक अंगीठी में आग के लिए हवा का प्रवाह बन सके। यह अंगीठी सुरंग में खुलने वाले एक छोटे कक्ष के विवर में स्थापित की गई थी और जब आग सुलगती थी तो सुराख से बहने वाली हवा धुएं को सुरंग में उड़ा देती थी और सुरंग के मार्ग को दुर्गम बना देती थी।
राजधानी परिवर्तन- दिल्ली से दौलताबाद
- 1325-1351 के बीच दिल्ली की गद्दी पर आसीन थे मुहम्मद बिन तुगलक। वह
मध्यकालीन सभी सुल्तानों में सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य
व्यक्ति था। पर अपनी कुछ दूरगामी योजनाओं के कारण इसे 'स्वप्नशील', और 'पागल' कहा गया है।
तुगलक ने 1327 में अपनी राजधानी को दिल्ली से देवगिरि स्थानान्तरित किया। हालांकि उसकी यह योजना सफल नहीं हो सकी। सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी ने देवगिरि का नाम 'कुतुबाबाद' रखा था और मुहम्मद बिन तुगलक ने
इसका नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की
गई। अरब यात्री इब्न बतूता ने भी राजधानी परिवर्तन योजना का मजाक उड़ाया है। पर वास्तव में ऐसा नहीं था। यह एक रणनीतिक योजना थी।
देवगिरि का भारत के मध्य स्थित होना, मंगोल आक्रमणकारियों के भय से सुरक्षित रहना, दक्षिण-भारत की सम्पन्नता की ओर खिंचाव आदि ऐसे कारण थे, जिनके कारण सुल्तान ने राजधानी परिवर्तित करने की बात सोची। पर तुगलक की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1335 में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। पर राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ।
देवगिरि का भारत के मध्य स्थित होना, मंगोल आक्रमणकारियों के भय से सुरक्षित रहना, दक्षिण-भारत की सम्पन्नता की ओर खिंचाव आदि ऐसे कारण थे, जिनके कारण सुल्तान ने राजधानी परिवर्तित करने की बात सोची। पर तुगलक की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1335 में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। पर राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ।
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