
पेंड्रा छोटा सा लेकिन ऐतिहासिक बाजार है। लेकिन पत्रकारिता में इसका अवदान बहुत बड़ा है। महान साहित्यकार और पत्रकार माधवराव सप्रे ने सन 1900 में जब समूचे छत्तीसगढ़ एक भी प्रिंटिंग प्रेस नही था तब उन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से कस्बे पेंड्रा से “छत्तीसगढ़ मित्र” नामक मासिक पत्रिका निकाली। यह पत्रिका तीन साल तक सफलतापूर्वक चली।
माधव राव सप्रे का जन्म मध्य प्रदेश के दामोह जिले में हुआ था। वे हिंदी में देश के महान पत्रकारों में गिने जाते हैं। वे मराठी परिवार से आते थे पर उन्होंने हिंदी की बडी सेवा की। सप्रे जी ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को यहां हिंद केसरी के रुप में छापना प्रारंभ किया, साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुर से हिंदी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की।

हमारी बिलासपुर जाने वाली ट्रेन का समय हो गया है। पेंड्रा रोड से ट्रेन चलने के बाद ट्रेन खोडरी, भांवर टोंक, तेंगान माडा, बेलगहना, सालका रोड, करगीरोड, कलमीटार, घुटकू और उसलपुर में रूकती है। उसलपुर तो बिलासपुर शहर का बाहरी इलाका है। पेंड्रा के बाद खोडरी के आसपास वन क्षेत्र आता है। सहयात्री बताते हैं कि यहां कई बार सड़कों पर भालू आदि जंगलों से निकल कर आ जाते हैं।

आसपास के जंगलों से लकड़ियां सस्ती मिल जाती हैं। अमरकंटक के होटल वाले लकड़ी का एक गट्ठर 50 रुपये में खरीदते हैं। बिलासपुर पैसेंजर में खोडरी और उसके बाद महिलाएं लकड़ी के गट्ठर लेकर ट्रेन में चढ़ने लगीं। पैसेंजर के दरवाजे और सभी टायलेट को अंदर बाहर लकड़ियों के गट्ठर से भर दिया। एक महिला ने बताया कि वह जंगल में दूसरे लोगों से लकड़ियां खरीदती है। एक गट्ठर 35 रुपये में। बिलासपुर शहर में होटलों को बेच आती हैं 70 रुपये में। पर हर गट्ठर पर 35 रुपये कमाई में काफी मेहनत है।
जंगल में जो लोग लकड़ियां तोड़ते हैं
उन्हें जंगली जानवरों भालू आदि से खतरा रहता है। वहीं ट्रेन में लकड़ी की तस्करी
में हमेशा सावधानी बरतनी पड़ती है। एक महिला ट्रेन में सारी लकड़ियां चढ़ा लेने के
बाद घूम घूम कर मूंगफली बेचने लगी। यानी एक साथ दो दो कारोबार। पापी पेट के लिए सब
कुछ करना पड़ता है। बताने लगी जब वन विभाग वाले लकड़ी पकड़ लेते हैं जो जुर्माना
तो नहीं होता पर लकड़ी जब्त हो जाती है। महीने में तीन चार बार ऐसा हो ही जाता है।
मैंने देखा बिलासपुर आने पहले ये महिलाएं लकड़ियों को ताबडतोड़ रेल से सड़कों पर फेंकने लगीं। वहां उनके साथी इन बंडलों को उठाने से लिए पहले से ही मौजूद रहते हैं। ये रोज का कारोबार है। पर इस तस्करी के कारोबार में में मेहनत भी है और खतरा भी। पर पेट की आग बुझाने के लिए लकड़ी की आग तो जलानी ही पड़ती है।
मैंने देखा बिलासपुर आने पहले ये महिलाएं लकड़ियों को ताबडतोड़ रेल से सड़कों पर फेंकने लगीं। वहां उनके साथी इन बंडलों को उठाने से लिए पहले से ही मौजूद रहते हैं। ये रोज का कारोबार है। पर इस तस्करी के कारोबार में में मेहनत भी है और खतरा भी। पर पेट की आग बुझाने के लिए लकड़ी की आग तो जलानी ही पड़ती है।
-- विद्युत प्रकाश मौर्य vidyutp@gmail.com
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