रांची
के ऐतिहासिक मोरहाबादी मैदान से थोड़ी दूरी पर टैगोर हिल। इसे मोरहाबादी हिल्स के नाम से भी जाना जाता है। लगभग 300 फीट ऊंची इस पहाड़ी
का नाम कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर के बड़े भाई ज्योतिन्द्रनाथ टैगोर के नाम पर
रखा गया है। कई लोग इस भ्रम में रहते हैं कि यह रविंद्रनाथ टैगोर के नाम पर है। मनोरम वातावरण, हवाओं में जादू के बीच यहां से सूर्योदय और सूर्यास्त
का नजारा लेना यादगार है। टैगोर हिल की चोटी के रांची शहर का बर्ड आई व्यू दिखाई
देता है। एक सुबह में अपने वरिष्ठ पत्रकार साथी अशोक जी के साथ मैं टैगोर हिल पहुंच गया।
टैगोर हिल की सबसे ऊंची चोटी तक पहुंचने के लिए काफी सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है। पर हमलोग धीऱे धीरे चलते हुए सबसे ऊपर की चोटी तक पहुंच ही गए। ऊपर पहुंचने के बाद यहां रांची शहर का सुंदर नजारा दिखाई देता है। कहा
जाता है कि जब ज्योतिन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी कादम्बरी देवी ने आत्महत्या कर ली
तब उन्होंने पत्नी की याद में यहां एक आश्रम बनाया। यहां एक सौ साल पुराना विशाल
वृक्ष है जिसकी चरणों में बैठक ज्योतिरींद्रनाथ
ध्यान लगाया करते थे।
टैगोर हिल की इन्ही ऊंचाइयों पर बैठकर ज्योतिंद्रनाथ टैगोर ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की गीता रहस्य पुस्तक का बांग्ला में अनुवाद भी किया था। ज्योतिरींद्रनाथ टैगोर, महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर के पांचवें बेटे थे। वे कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर से उम्र में 12 साल बड़े थे। वे संगीतकार, गायक, चित्रकार, अनुवादक, नाटककार, कवि सब कुछ थे। उनके बारे में कहा जाता है कि वे पहली बार 1905 में रांची आए थे। यहां आबोहवा उन्हें इतनी अच्छी लगी की यहीं के होकर रह गए।
टैगोर हिल की इन्ही ऊंचाइयों पर बैठकर ज्योतिंद्रनाथ टैगोर ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की गीता रहस्य पुस्तक का बांग्ला में अनुवाद भी किया था। ज्योतिरींद्रनाथ टैगोर, महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर के पांचवें बेटे थे। वे कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर से उम्र में 12 साल बड़े थे। वे संगीतकार, गायक, चित्रकार, अनुवादक, नाटककार, कवि सब कुछ थे। उनके बारे में कहा जाता है कि वे पहली बार 1905 में रांची आए थे। यहां आबोहवा उन्हें इतनी अच्छी लगी की यहीं के होकर रह गए।
सन 1908 में ज्योतिंद्रनाथ टैगोर टैगोर हिल के पहाड़ी के आसपास की जमीन खरीदी और यहां आगे लंबे समय तक
रहे। टैगोर हिल पर चढ़ने के लिए उन्होंने सीढ़िया बनवाईं। अब इन सीढ़ियों की राज्य
प्रशासन की ओर से मरम्मत कराई गई है। ज्योतिंद्र ब्रह्म समाजी थे इसलिए पहाड़ी की
चोटी पर साधना के लिए एक खुला मंडप बनवाया। ज्योतिदा ने अपने रहने के लिए यहां घर
भी बनवाया। टैगोर हिल के नीचे रामकृष्ण आश्रम बना हुआ है।
रविंद्रनाथ टैगोर कभी रांची नहीं आए - हालांकि कविगुरु रविंद्रनाथ टैगोर रांची कभी नहीं आए। लेकिन 4 मार्च 1925 को उनके बड़े भाई ज्योति दा ने यहीं पर अंतिम सांस ली। टैगोर हिल की चोटी पर पहुंचकर ऐसा लगता है मानो उनकी आत्मा अभी भी यहीं बस रही हो। कुछ घंटे यहां गुजारने के बाद हमलोग टैगोर हिल से नीचे की ओर उतरने लगे। बड़ी संख्या में स्थानीय लोग टैगोर हिल पर सूर्योदय और सूर्यास्त देखने आते हैं।
रविंद्रनाथ टैगोर कभी रांची नहीं आए - हालांकि कविगुरु रविंद्रनाथ टैगोर रांची कभी नहीं आए। लेकिन 4 मार्च 1925 को उनके बड़े भाई ज्योति दा ने यहीं पर अंतिम सांस ली। टैगोर हिल की चोटी पर पहुंचकर ऐसा लगता है मानो उनकी आत्मा अभी भी यहीं बस रही हो। कुछ घंटे यहां गुजारने के बाद हमलोग टैगोर हिल से नीचे की ओर उतरने लगे। बड़ी संख्या में स्थानीय लोग टैगोर हिल पर सूर्योदय और सूर्यास्त देखने आते हैं।
हालांकि टैगोर
हिल पर साफ सफाई के इंतजामात अच्छे दिखाई नहीं देते। दोपहर से शाम तक टैगोर हिल
रांची के इक्के दुक्के प्रेमी प्रेमिकाओं से गुलजार हो जाता है, जो प्रेमालाप के
लिए एकांत ढूंढने इधर आते हैं। यहां खाने पीने के लिए कैंटीन बनाई गई है पर वह बंद
रहती है। पहाड़ी पर सुरक्षा इंतजाम अच्छे नहीं हैं। इसलिए जब कभी जाएं तो समूह में
ही जाने की कोशिश करें। रांची का जिला प्रशासन ध्यान दे तो टैगोर हिल की दशा में सुधार हो सकता है।
( यात्रा काल - 26 जून 2014, तस्वीरें - कैमरा - लेनेवो ए390, 5MP )
( यात्रा काल - 26 जून 2014, तस्वीरें - कैमरा - लेनेवो ए390, 5MP )
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