1995 के बाद 2014 में गांव आना हो सका है। कुल 19 साल बाद। इस बीच न जाने कहां कहां भटकता रहा। पर मुसाफिर लौट आया है एक बार फिर अपने घोसलें में। वहीं जहां की धूल में लोटकर बचपन गुजरा था।
जौ लहलहा रहे हैं...गेहूं की बालियां झूम रही हैं। जल्द ही वे सुनहला रंग लेने वाली हैं। पीपल पर पतझड़ आ गया है पर जल्द ही उस पर नए हरे पत्ते आने वाले हैं।
जौ लहलहा रहे हैं...गेहूं की बालियां झूम रही हैं। जल्द ही वे सुनहला रंग लेने वाली हैं। पीपल पर पतझड़ आ गया है पर जल्द ही उस पर नए हरे पत्ते आने वाले हैं।
पीपल के किनारे बहता नहर का पानी
गांव-गांव को सींचित करता अपनी मंजिल की ओर बढ़ा जा रहा है। नहर के किनारे कुमुदनी
खिलखिला रही है। ये मार्च का महीना है। वसंत जाने की तैयारी में है।
चाचा ने नहर पार करने के लिए
पगडंडियों वाला पुल बना दिया है। जी तो करता है एक बार फिर इस नहर में छलांग लगा
दूं ....जैसे छुटपन में पीपल की छैंया में हर रोज सोन नहर के सुनहले पानी में
डुबकी लगाया करता था। और ये गीत गुनगुनाता था...गांव में पीपल पीपल की
छैंया...छैंया में पानी....पानी में आग लगाए.....
नन्हें अनादि ने पहली बार गांव
देखा है कभी वे जौ की बालियों को सहला रहे हैं तो कभी हरे भरे भरे पपीते के पुष्ट
फलों को देखकर खुश हो रहे हैं।
मेरा प्यारा कदंब,
शहतूत और अमरुद के बाग तो अब कहीं दिखाई नहीं दे रहे, पर वह कागजी नीबू का पेड़ अभी भी गांव के लोगों को अपनी सेवाएं दे रहा है।
कुछ पुराने पेड़ कटे हैं तो कई नए पेड़ लगे भी हैं...गांव में हरियाली बढ़ गई है।
मेरी बंसवारी भी सही सलामत है...पर उसके पास सहजन का पेड़ नहीं रहा। और ये है मेरे परदादा का बनवाया
हुआ कुआं। गांव के लोगों ने अब इसके चारों तरफ चौड़े पाट बनवा दिए हैं।
अनादि कुएं के अंदर लगे
शिलापट्ट पर अपने लक्कड दादा का नाम ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। नाम दिखाई नहीं
देता। लेकिन मुझे याद है परदादा का नाम जगदेव सिंह। उनके बेटे प्रयाग सिंह। उनके
बेटे कन्हैया सिंह और उनका बेटा मैं। पीढ़ियां बदलती जाती हैं नाम बदलते जाते हैं,
पर गांव का नाम तो वही रहता है। कई पुरानी दीवारें गिर गईं हैं तो
कई नई दीवारें खड़ी हो गई हैं। लेकिन गांव मुस्कुरा रहा है।
गांव में लालटेन युग खत्म हो
चुका है। एक पुराना लालटेन दीवार की खूंटी पर अब भी टंगा है। बिजली के बल्ब से घर
आंगन रोशन हो रहे हैं। छतों पर डिश एंटेना लग चुके हैं। घर में फ्रिज और आरओ
सिस्टम भी पहुंच चुका है। गांव के चारों ओर सड़कों का जाल बिछ चुका है। मेरा गांव
अब पंजाब के गांव से मुकाबला कर रहा है।
गांव की गली मुस्कुरा कर पूछती
है...आखिर तुम आ ही गए...मैं तो कब से तुम्हारी बाट जो रही थी... पूछे भी भला
क्यों नहीं, इस बार कई सालों बाद आया
हूं गांव में। किन किन शहरों से घूम कर आए...कितनी दूर जाकर बसेरा बना लिया
है...मेरी याद क्यों नहीं आई...और मेरी आंखे नम हो आती हैं...आंसूओं की की नदी बह
निकलती है जो रुकने का नाम नहीं लेती... मन ही मन कहता हूं.. क्या करूं आना तो बहुत चाहता था, पर रास्ता भटक गया था। पर मैं भला तुम्हारा कर्ज चुका भी कैसे सकता हूं। भला उस मिट्टी का कर्ज कोई कैसे चुकाए जहां की धूल मिट्टी में पलकर हमें जीवन के पथ पर संघर्ष करने योग्य बनाया है। तुम्हारा कर्ज तो हमेशा ही चढ़ा रहेगा।

दादा जी की याद - जब सोहवलिया पहुंचता हूं तो दादा जी की असंख्य
स्मृतियां आंखों के सामने आ जाती हैं। बचपन में दादा जी के साथ खेती में मदद। रहंट
चलाना, दवनी में बैलों के पीछे चलना, गाय चराने जाना। पर मेरे दादा जी प्रयाग सिंह इलाके के बड़े ही लोकप्रिय
व्यक्ति थे।
आठ जनवरी 1984 को दादाजी हमें छोड़कर चले गए
थे । मेरे दादा प्रयाग सिंह एक आम ग्रामीण और किसान थे। उनकी स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं थी। पर बौद्धिक ज्ञान में एमए पीएचडी से आगे थे। बड़े
घुमक्कड़ और इलाके में अत्यंत लोकप्रिय शख्सियत थे। कहा जाता है कि अच्छी आत्माएं
स्वर्ग से भी अपनी संतानों को देखती हैं और मार्गदर्शन करती हैं। मेरे दादा जी
मुझे आज भी संकट की की घड़ी में आलोकित करते हैं। मैं आठवीं कक्षा में था जब एक
सर्द सुबह हमें वे छोड़ गए थे। पर खुशी है कि आखिरी दिनों में उनकी सेवा करने का
मौका और आशीर्वाद खूब मिला था। नमन..
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विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com
( SOHWALIA DAYS 3, MY VILLAGE, ROHTAS )
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