
ये दुनिया की सबसे छोटी नैरो
गेज लाइन है, जो अभी चालू है। कुल दो किलोमीटर का सफर पूरी मस्ती से तय करती है,
लेकिन
यात्री नहीं ढोती। माल ढुलाई के काम आती है। असम के तिनसुकिया के पास तिपोंग में
चलती है ये ट्रेन। तिपोंग कोलरी इस रेलवे ट्रैक का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस रेलवे ट्रैक पर दुनिया की
सबसे छोटे लोकोमोटिव का इस्तेमाल किया जा रहा है। ए क्लास 0-4-0
सेडल टैंक लोको छोटे-छोटे मालगाड़ी के डिब्बों को खींचता है।
इस रेलवे लाइन को चलाने के लिए जो लोकोमोटिव इस्तेमाल किया जा रहा है वह काफी साल पहले दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे में इस्तेमाल किया जा रहा था। इस ए क्लास लोको का नाम तिपोंग वैली डेविड दिया गया है। इस ए क्लास लोको से शंटिंग आदि काम भी लिया जाता है। वहीं तिपोंग नार्थ इस्टर्न कोलफील्ड्स ( एनईसी) के कोलयरी के कोयला ढुलाई के काम के लिए बी क्लास के इंजन इस्तेमाल में लाए जाते हैं।
इस रेलवे लाइन को चलाने के लिए जो लोकोमोटिव इस्तेमाल किया जा रहा है वह काफी साल पहले दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे में इस्तेमाल किया जा रहा था। इस ए क्लास लोको का नाम तिपोंग वैली डेविड दिया गया है। इस ए क्लास लोको से शंटिंग आदि काम भी लिया जाता है। वहीं तिपोंग नार्थ इस्टर्न कोलफील्ड्स ( एनईसी) के कोलयरी के कोयला ढुलाई के काम के लिए बी क्लास के इंजन इस्तेमाल में लाए जाते हैं।
इन्हें दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे से सेकेंड हैंड के तौर पर खरीदा गया था। ये रेलवे लाइन भारतीय रेल के
मीटर गेज रेलवे स्टेशन के पास से आरंभ होता है। इसके दो किलोमीटर के मार्ग में एक
सुरंग और कई छोटे-छोटे पुल आते हैं। साथ साथ सड़क भी है। छोटे से मार्ग में
हरियाली और खूबसूरत नजारे हैं। बांस और फूस के बने लोगों के घर रास्ते में पड़ते
हैं। हालांकि 1998 में कोलयरी
में एक बार इस रेलवे लाइन को हटाकर सड़क बनाने का प्रस्ताव आया लेकिन ऐसा नहीं
किया जा सका। इस रेलवे लाइन 2014
में भी माल ढुलाई का काम जारी है।
इस छोटे से मार्ग के रखरखाव में काफी समस्याएं आती हैं। माल ढुलाई के लिए स्टीम इंजन का इस्तेमाल किया जाता है। कई तरह के कल पुर्जे नहीं मिलते तो मरम्मत करने में समस्या आती है। पर ये ट्रेन जब धुआं उड़ाती हुई नदी को पार करती है तो देखने में बड़ा रोमांचक लगता है। तिपोंग वैली रेलवे अपने दो किलोमीटर के पथ पर तिपोंग नदी पर बने पुल को भी पार करती है। कोयला ढुलाई के समय आमतौर पर इसमें छह वैगन लगाए जाते हैं।
इस छोटे से मार्ग के रखरखाव में काफी समस्याएं आती हैं। माल ढुलाई के लिए स्टीम इंजन का इस्तेमाल किया जाता है। कई तरह के कल पुर्जे नहीं मिलते तो मरम्मत करने में समस्या आती है। पर ये ट्रेन जब धुआं उड़ाती हुई नदी को पार करती है तो देखने में बड़ा रोमांचक लगता है। तिपोंग वैली रेलवे अपने दो किलोमीटर के पथ पर तिपोंग नदी पर बने पुल को भी पार करती है। कोयला ढुलाई के समय आमतौर पर इसमें छह वैगन लगाए जाते हैं।
नैरो गेज की बात करें तो इसका
मतलब 2 फीट 6
ईंच
( 762 एमएम) पटरियों
के बीच की चौड़ाई वाली रेलवे लाइन। हालांकि कुछ नैरो गेज लाइनों की चौड़ाई दो फीट
भी है। भारत में पहली 762 एमएम
की नैरो गेज लाइन 1863 में
बडौदा स्टेट रेलवे ने बिछाई। यह रेलवे बड़ौदा के गायकवाड रियासत के अंतर्गत आती
है। 1897 में बारसी
लाइट रेलवे की शुरूआत हुई जो लंबी रेलवे लाइन थी।
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तिपोंग लाइन को ठीक करने की कोशिश। |
नैरो गेज रेलवे के फायदे - नैरो
गेज लाइन बिछाने में खर्च कम आता है। इसे कम जमीन में बिछाया जा सकता है। कई बार
ये सड़कों किनारे फुटपाथ पर भी बिछा दी जाती है। रेलवे पुल और सुरंग आदि बनाने में
भी खर्च कम आता है। नैरो गेज रेल ब्रॉड गेज की तुलना में ज्यादा तीखे मोड़पर आसानी
से घूम जाती है। इसलिए ऐसी रेल पहाड़ों के लिए मुफीद है। ऐसी रेल पहाड़ों के
पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाती है। ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण भी ऐसी लाइन से
कम मात्रा में होता है। शहरों में इसे घनी आबादी वाले इलाकों में भी आसानी से
चलाया जा सकता है।
- विद्युत
प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com (TIPONG, ASSAM, NG RAIL)