पटियाला रियासत में मोनो रेल सेवा 1907 में आरंभ हुई और दो दशक तक अपनी
सेवा देती रही। इसे 1927 में बंद कर दिया गया। कुल 80 किलोमीटर रेल सेवा के लिए दो
लाइनें बिछाई गई थीं। इसकी कंपनी का नाम पटियाला स्टेट मोनो रेल ट्रामवे ( पीएसएमटी)
था।
केरल के मुन्नार में कांडला वैली रेलवे के बाद ये भारत की अपने तरह की दूसरी मोनो रेल सेवा थी।
हालांकि 1908 में कांडला वैली मोनो रेल के नैरोगेज में बदल दिया गया पर पटियाला
मोनो रेल 1927 तक सरपट दौड़ती रही।
महाराजा भूपिंदर सिंह का कोशिश रंग लाई - महाराजा सर भूपिंदर सिंह को अपने राज्य की जनता के लिए अनूठी रेल सेवा
शुरू करने का ख्याल आया। इस परियोजना के चीफ इंजीनियर कर्नल सी डब्लू बावेल्स बनाए
गए। कर्नल बावेल्स इस तरह के मोनो रेल तकनीक का प्रयोग पहले भी बंगाल नागपुर रेलवे
में माल ढुलाई के ट्रैक के लिए कर चुके थे। महाराजा भूपिंदर सिंह ने उन्हें
पीएसटीएम प्रोजेक्ट का मुख्य इंजीनियर नियुक्त किया। इस रेल के बग्घियों के खींचने
के लिए रियासत में पाले गए 560 खच्चरों का इस्तेमाल किया गया। खच्चरों के अलावा इस
मोनो रेल में बैलों और सांडों का भी इस्तेमाल किया गया।

पीएसएमटी के बारे में 1908 के
इंपेरियल गजट के अलावा छपी हुई जानकारी कहीं नहीं मिलती है। इसमें लिखा गया है कि
1907 में भारत में एक मोनो रेल सेवा आरंभ की गई है जो मोरिंडा को सरहिंद शहर से जोड़ती है।
दिल्ली के नेशनल रेल म्युजियम में संरक्षित पटियाला मोनोरेल का लोकोमोटिव। |
अनूठा एविंग सिस्टम – पटियाला मोनो रेल के संचालन में एविंग सिस्टम का इस्तेमाल
किया जा रहा था। इसमें किसी कोच का 95 फीसदी भार लोहे की पटरी पर चलने वाले पहिए
पर पड़ता है जबकि महज 5 फीसदी भार सड़क पर
चलने वाले पहिए पर पडता है। इस तरह संतुलन बना रहता है। जबकि समान्य रेल गाड़ियों
में बराबर बराबर भार रेल के दोनो पटरियों पर चलने वाले पहियों में बंट जाता है। लोहे
की पटरी पर चलने वाला पहिया छोटा था जबकि सड़क पर चलने वाला बड़ा।
मोनो रेल में समान्य रेल की तरह डिरेलिंग यानी पटरी से उतर जाने की समस्या नहीं रहती है। इसके साथ ही सड़क का समतल होना भी काफी जरूरी नहीं होता। साथ ही मोनो रेल की पटरियां बिछाने का खर्च भी समान्य रेल से काफी कम आता है। मोनो रेल को परंपरागत रेल से घुमाव के लिए कोण भी बहुत कम चाहिए।
पटियाला मोनो रेल पटियाला शहर के घनी आबादी के बीच भी आसानी से चलती थी। इससे सड़क पर चल रहे समान्य ट्रैफिक को कोई दिक्कत नहीं आती थी। मोनो रेल की ये तकनीक वास्तव में आज भी उन इलाकों के लिए लाभकारी हो सकती है जो भीड़ भाड वाले इलाके हैं जहां जगह की कमी के कारण मेट्रो ट्रेन या फिर ट्राम चलाना संभव नहीं है।
मोनो रेल में समान्य रेल की तरह डिरेलिंग यानी पटरी से उतर जाने की समस्या नहीं रहती है। इसके साथ ही सड़क का समतल होना भी काफी जरूरी नहीं होता। साथ ही मोनो रेल की पटरियां बिछाने का खर्च भी समान्य रेल से काफी कम आता है। मोनो रेल को परंपरागत रेल से घुमाव के लिए कोण भी बहुत कम चाहिए।
पटियाला मोनो रेल पटियाला शहर के घनी आबादी के बीच भी आसानी से चलती थी। इससे सड़क पर चल रहे समान्य ट्रैफिक को कोई दिक्कत नहीं आती थी। मोनो रेल की ये तकनीक वास्तव में आज भी उन इलाकों के लिए लाभकारी हो सकती है जो भीड़ भाड वाले इलाके हैं जहां जगह की कमी के कारण मेट्रो ट्रेन या फिर ट्राम चलाना संभव नहीं है।
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