पटियाला स्टेट मोनो रेल का कुल नेटवर्क 80 किलोमीटर का था। इसमें दो लाइनें थी।
पहली लाइन सरहिंद से मोरिंडा के बीच 24 किलोमीटर की थी। इसे रोपड़ तक आगे बढ़ाने
का प्रस्ताव था जो आकार नहीं ले सका। दूसरी लाइन 56 किलोमीटर की थी जो पटियाला से
सुनाम के बीच चलाई गई थी। इस लाइन का निर्माण मुंबई की मार्सलैंड एंड प्राइस नामक कंपनी ने
किया था। तब ट्रैक बिछाने में 70 हजार रुपये का खर्च आया था।
हालांकि आज की तारीख में इस ट्रैक का कोई स्मृति चिन्ह पटियाला, सुनाम, सरहिंद, मोरिंडा मार्ग पर नजर
नहीं आता है। हालांकि इस लाइन के निर्माण से जुडे चीफ इंजीनियर कर्नल बावेल एक पत्र में लिखते हैं कि
पटियाला शहर की लाइन नार्थ
वेस्टर्न रेलवे के माल गोदाम से आरंभ होती थी। इसके बाद लाइन पटियाला शहर में
मुख्य रेलवे लाइन को क्रास कर शहर की मंडी से होते हुए कैंटोनमेंट इलाके में जाती
थी। वहां से भवानीगढ़ होते हुए सुनाम तक जाती थी।
पहले खींचते थे खच्चर – पटियाला मोनो रेल को खींचने के लिए लंबे समय तक खच्चरों का इस्तेमाल किया गया है। राजा के अस्तबल में बड़ी संख्या में खच्चर थे, जिन्हें मोनोरेल को खींचने के लिए लगाया गया। दरअसल ये खच्चर युद्धकाल के लिए लाए गए थे। पर इनके खाली होने के कारण इनका इस्तेमाल परिवहन में किया गया। ऐसा पता चलता है कि पटियाला से सुनाम वाली
लाइन में स्टीम इंजन का इस्तेमाल किया
गया। जबकि सरहिंद मोरिंडा लाइन के कोच को खच्चर ही खींचते रहे। पहले स्टीम इंजन का
इस्तेमाल पटियाला स्टेशन और शहर की मंडी के बीच के एक किलोमीटर मार्ग में किया
गया।
मोनो रेल का लोकोमोटिव ( इंजन) – पटियाला मोनो रेल में 0-3-0 माडल का लोको
इस्तेमाल हुआ। ये ओरेनस्टीन एंड कोपेल ( ओ एंड के) द्वारा बनाया गया था। बर्लिन की
कंपनी से इंजन 500 और 600 पाउंड में खरीदा गया था। रेल के सुचारू संचालन के लिए कुल चार लोकोमोटिव खरीदे गए थे। डोनाल्ड डब्लू डीकेन्स अपने लेख
में लोको के बारे में बताते हैं कि दाहिने तरफ का वाटर टैंक बड़ा था इसलिए इंजन का
वजन लोहे की पटरी पर चलने वाले पहिए पर शिफ्ट कर जाता था। पटरी वाले पहिए का व्यास 39 ईंच ( 990एमएम ) था। लोको
पायलट के खड़े होने की जगह में अच्छा खासा केबिन स्पेस भी हुआ करता था।
मोनो रेल के कोच – पटियाला मोनो रेल के कोच 8 फीट लंबे और 6 फीट चौड़े हुआ करते थे। 1908 में पटियाला मोनो रेल की जब शुरुआत हुई तब इसके पास 15 पैसेंजर कोच और 75 मालगाड़ी के डिब्बे थे। इन मालगाड़ी वाले डिब्बों का इस्तेमाल मुख्य रूप से कनक (गेहूं) की ढुलाई के लिए भी किया जाता था। इनमें कुछ माल गाड़ी के डिब्बे ऐसे भी थे जिन्हें जरूरत पड़ने पर सवारी डिब्बे में भी बदल दिया जाता था।
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