दिल्ली का गुरुद्वारा शीशगंज
भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह गुरुद्वारा सिख धर्म के नौंवे
गुरु गुरु तेग बहादुर की शहादत से जुड़ा है। यह सिख धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र स्थान है । देश भर से सिख समुदाय के लोग यहां हर रोज पहुंचते हैं।
दिल्ली में लालकिला से जब चांदनी चौक की सड़क पर आगे बढ़ते हैं तो बायीं तरफ गुरुद्वारा शीशगंज नजर आता है। यह फव्वारा चौक के बिल्कुल पास ही स्थित है। 1783 में हुआ निर्माण -
यह गुरुद्वारा 1783 में बघेल सिंह धालीवाल द्वारा नौवें सिख गुरु, गुरु तेग बहादुर के शहादत स्थल की याद में बनाया गया था। चांदनी चौक के अति व्यस्त इलाके में इस गुरुद्वारे की शानदार इमारत दूर से दमकती हुई नजर आती है।
दिल्ली में लालकिला से जब चांदनी चौक की सड़क पर आगे बढ़ते हैं तो बायीं तरफ गुरुद्वारा शीशगंज नजर आता है। यह फव्वारा चौक के बिल्कुल पास ही स्थित है। 1783 में हुआ निर्माण -
यह गुरुद्वारा 1783 में बघेल सिंह धालीवाल द्वारा नौवें सिख गुरु, गुरु तेग बहादुर के शहादत स्थल की याद में बनाया गया था। चांदनी चौक के अति व्यस्त इलाके में इस गुरुद्वारे की शानदार इमारत दूर से दमकती हुई नजर आती है।
हिंदू धर्म के रक्षक गुरु तेगबहादुर
वह दौर था जब मुगल शासक औरंगजेब
ने जबरदस्त आतंक देश भर में फैला हुआ था। बादशाह के आदेश पर सभी कश्मीरी पंडितों
को जबरदस्ती इस्लाम में परिवर्तित किये जाने का हुकुम जारी किया गया था। उस समय
सिखों के नौवें गुरु 'गुरु तेग बहादुर
जी' अपने परिवार के साथ पंजाब के अनंदपुर साहिब में रहते थे।
इसी दौरान कश्मीरी पंडित गुरु जी के दरबार में पहुंचे और उनसे हिन्दुओं को इस
परेशानी से बाहर निकलने के लिए विनती करने लगे। तब गुरु जी के पुत्र गोबिंद राय
(गुरु गोबिंद सिंह जी) जो कि उस समय मात्र दस वर्ष के थे, ने
अपने पिता से कहा, 'यह समय किसी महान शख्स की शहादत मांग रही
है। पुत्र की समझदारी भरी बात सुन गुरु जी अत्यंत प्रसन्न हुए और अपने साथ पांच संगियों
को लेकर दिल्ली के लिए रवाना हुए।
गुरु तेगबहादुर की शहादत
दिल्ली आने पर जब गुरु जी ने
मुगल सम्राट औरंगजेब के आदेश पर इस्लाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया। जब
उन्होंने औरंगजेब के आगे झुकने से इनकार कर दिया तो तो 11
नवंबर 1675 को उन्हें मौत की सजा दी गई।
एक जल्लाद जलाल-उद-दीन ने बादशाह के आदेश पर उनका सिर कलम कर दिया। जिस जगह पर गुरु जी की शहादत
हुई वहां एक बरगद का पेड़ हुआ करता था। वहां दिल्ली की भारी भीड़ जमा थी। हजारों
लोगों के सामने गुरु तेग बदादुर की शहादत हुई। यहां पर गुरु जी के शिष्य भाई
मतिदास ने भी शहादत दी। उन्हें जिंदा आरे चिरवा दिया गया था। दूसरे शिष्य भाई
दयाला जी और सतीदास जी ने भी यहीं पर शहादत दी।
हिंद की चादर
वे हिंदुस्तान और हिंदू धर्म की
रक्षा के लिए शहीद हो गए थे। गुरु तेग बहादुर की इस महान शहादत के कारण उन्हें
हिंद की चादर की उपाधि दी गई। गुरु जी ने शहीद होने से पहले जिस कुएं के पानी
स्नान किया था, वह कुआं अब भी सुरक्षित है। गुरुद्वारा शीशगंज में जिस स्थान पर
आजकल लंगर है वहां पर कभी मुगल शासकों की जेल हुआ करती थी।
गुरुद्वारा रकाबगंज में हुआ
अंतिम संस्कार
गुरुजी की शहादत के बाद भाई लखी
शाह गुरुजी के धड़ को रूई के ढेर में छिपाकर दिल्ली की बस्ती रायसीना ले गए और
वहां पर गुरुजी का अंतिम संस्कार किया। उस स्थल पर गुरुद्वारा रकाबगंज बना हुआ है।
यह स्थल केंद्रीय सचिवालय बस स्टैंड के पास है।
गुरुद्वारा शीशगंज में सालों भर दिन भर
श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। यहां पर अनवरत लंगर भी चलता रहता है।
श्रद्धालुओं के लिए लगातार जल सेवा चलती रहती है। हजारों की संख्या में लोग
गुरुद्वारा में कार सेवा में लगे रहते हैं।
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