समय पूरा हो गया थ..हमें
हमारी यूनिवर्सिटी बुला रही थी। गांव वालों का इतना स्नेह था कि गांव छोडने की
इच्छा नहीं हो रही थी लेकिन हमlतो महात्मा गांधी सेवा आश्रम,
जौरा के एक प्रोजेक्ट के तहत गांव पहुंचे थे। एक दिन
वापस तो आना ही था। एक सुबह हमने गांव में अपनी आखिरी कक्षा लगाई। गांव के लोगों
को सलाह दी कि वे आगे स्वाध्याय से अपनी पढ़ाई जारी रखें।
गांव के सारे लोगों से
हमने विदा ली। गांव से बस स्टाप आठ से दस किलोमीटर की दूरी पर था। हमलोग बस स्टाप
के रास्ते पर निकल पड़े। एक ऐसे गांव को छोड़कर जहां बिजली नहीं थी। पानी नहीं था।
खाने में भी मिलता था रूखा सूखा सा। कई बार गर्मी की चिलचिलाती दोपहरी में इच्छा
होती थी कहां आ गए इस साक्षरता प्रोजेक्ट में। चलो अभी गांव छोड़कर चलते हैं।
हमारे बीएचयू के हास्टल में तो कभी बिजली नहीं जाती थी। यहां हम दिन भर पंखा झल
रहे हैं। लेकिन देखते देकते वक्त गुजर गया। लेकिन ये क्या जाने के दिन गांव छोड़ने
में दुख हो रहा था। अब गांव छोड़कर जाने की इच्छा नहीं हो रही थी। रहते रहते गांव
से,
गांव के लोगों से लगाव हो गया था। मानो हम उसी दुनिया में ढल चुके
थे।

दो
कुएं एक ही गांव में रहते हैं लेकिन आपस में कभी नहीं मिलते। तुम पता नहीं किस देश
से आए और हमसे मिले। हमारा मिलना ईश्वर की इच्छा से हुआ है।
हां सचमुच हम ईश्वर की
इच्छा से ही तो पहुंच पाए थे कीर का झोपड़ा में।
-
-- विद्युत प्रकाश मौर्य
( ( चंबल संस्मरण की आखिरी किस्त पढ़े - भगवान के लिए आती है डाक )
चंबल का सफरनामा शुरुआत से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
http://www.mahatmagandhisevaashram.org/
चंबल का सफरनामा शुरुआत से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
http://www.mahatmagandhisevaashram.org/
No comments:
Post a Comment