
कई घंटे की लंबी यात्रा के बाद जिस गांव में हम
मजबूरी में भोज खाने पहुंचे थे उसका नाम था माकड़ोध। यह भोज किसी बच्चे के मुंडन का था। सारे गांव वाले खुशी में झूम रहे थे। पर वहां बैठने के लिए
कोई दरी चादर या आसनी नहीं थी। हमें बाकी लोगों के साथ ही जमीन पर चुक्को मुक्को बैठकर भोज खाना पड़ा। और कोई चारा नहीं था। शहर के काफी लोग तो शायद अब इस आसन में बैठ भी न पाएं। पर हमने गांव में ऐसे बैठकर भोज खाया था। अब जानिए भोज का मीनू
था सरसों तेल में छनी मोटी-मोटी पूड़ियां, कोहड़े की सब्जी और सीरा ( आटे से बना
हलवा )।
हमें और दिग्विजय को इस तरह का भोज खाने में काफी मुश्किल आई क्योंकि अभी तक हमें सब जगह दिव्य भोजन का स्वाद मिल रहा था। हम इस बात पर भी चिंता में थे कि जब भोज ऐसा है तो रोज का खाना कैसा होगा। हालांकि गांव के लोग इस भोज को मजे लेकर खा रहे थे। हमें मुश्किल आई तो गांव के लोगों ने खाने का तरीका बताया। खाने के दौरान पीने के पानी का भी कोई इंतजाम नहीं।
हमें और दिग्विजय को इस तरह का भोज खाने में काफी मुश्किल आई क्योंकि अभी तक हमें सब जगह दिव्य भोजन का स्वाद मिल रहा था। हम इस बात पर भी चिंता में थे कि जब भोज ऐसा है तो रोज का खाना कैसा होगा। हालांकि गांव के लोग इस भोज को मजे लेकर खा रहे थे। हमें मुश्किल आई तो गांव के लोगों ने खाने का तरीका बताया। खाने के दौरान पीने के पानी का भी कोई इंतजाम नहीं।
पानी की बात पर आपको
बता दें कि यहां लोग ग्लास या लोटे को मुंह से लगाकर नहीं पीते। यानी जूठा नहीं
करते। हर कोई हलक में ऊपर से ही पानी उतार लेता है। इससे ग्लास या लोटे को बार बार
धोना नहीं पड़ता। भाई पानी की कमी जो है। मुझे और दिग्विजय भाई को भी इसी तरह पानी
पीना सीखना पड़ा।
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चंबल क्षेत्र की गजक की पहचान दूर दूर तक है। |
चंबल प्रवास के दौरान एक दिन और भोज खाने का मौका मिला। एक दिन जग्गू भाई ने कीर के झोपड़ा में आकर आमंत्रण दिया कि आज शाम को आप हमारे गांव बगदिया के एक भोज में आमंत्रित हैं। बगदिया गांव में एक पंडितजी के निधन के बाद उनके श्राद्ध का भोज था।
इस भोज के मीनू में यहां भी सरसों के तेल वाली पूड़ी के साथ कोहड़े की सब्जी थी। लेकिन ये अपेक्षाकृत अमीर आदमी के गुजरने पर भोज हो रहा था। इसलिए यहां के भोज में साथ में मोतीचूर का लड्डु भी मौजूद था। तो भाई नमक रोटी के बीच में लड्डू खाकर मजा आ गया।
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