कई साल हो गए थे अपने गांव सोहवलिया गए हुए। इस
बार सोचा चलो गांव हो आते हैं। बनारस छोड़ रहा था, दिल्ली जाने वाला था, सो
सोचा पता नहीं अब कितने दिनों बाद गांव आना हो सके। मेरे गांव का नजदीकी रेलवे स्टेशन कुदरा है।
कुदरा मुगलसराय जो मध्य भारत का बहुत बड़ा रेलवे जंक्शन है वहां से सिर्फ 75 किलोमीटर
है। कुदरा रेलवे स्टेशन भारतीय रेलवे के ग्रैंड कोर्ड लाइन पर है। यह दिल्ली कोलकाता का मुख्य रेल मार्ग
है। जब से मैंने होश संभाला है यह रेलवे लाइन विद्युतीकृत है। अब माल ढुलाई की
सुविधा के लिए तीसरी लाइन भी इस मार्ग पर बिछ चुकी है। यहां तक तो सब कुछ ठीक है।
पर गांव जाने के लिए कुदरा से आगे जो सफर करना पड़ता है वह हमेशा से मुश्किलों भरा
रहा है।
मैंने वाराणसी से पैसेंजर ट्रेन
पकड़ी दो ढाई घंटे के सफर के बाद जैसे ही प्लेटफार्म पर कुदरा लिखा
हुआ नजर आया, बड़ी खुशी हुई
कि अपना इलाका आ गया।
रेलवे स्टेशन से उतर कर अपने
गांव की ओर जाने वाली सड़क पर आया। किसी जमाने में कुदरा से 14 किलोमीटर
का सफर यानी हमारे गांव की ओर जाने के लिए तांगे यानी टमटम या घोड़ा गाड़ी चला
करते थे। अब पता चला कि तांगे नहीं चल रहे हैं। सड़क बहुत खराब है, घोड़ागाड़ी यानी एक्का चलाने वालों ने यह कारोबार छोड़ दिया है। कभी कुदरा से परसथुआ मार्ग पर बसें भी चलती
थीं। दिन में भर में दो बसें थीं। उमा और राधालक्ष्मी नाम थे उनके। हम बहुत दूर से देखकर ही उन बसों को पहचान लेते थे।
पर सड़कें बहुत खराब होने के कारण बसें चलनी भी कम हो गई हैं। लोगों ने बताया कि जोंगा मिलेगी। अब इ जोंगा का होला....जोंगा आर्मी से आक्सन की गई जीपे हैं। जो उबड़ खाबड़ में चलने के लिए अच्छी हैं। मैं अब किसी जोंगा के इंतजार में था। तब फुटपाथ पर लिट्टी चोखा खाने का आनंद उठाने की सोची। लकड़ी के कोयले पर लोहे की तार की जाली लगाकर छोटी-छोटी लिट्टी बनाकर बेचना हमारे इलाके का बड़ा प्यारा भोजन है। इसके साथ थोड़ा सा आलू-बैगन का चोखा मिलता है। यह समोसे, कुलचे या छोले भठुरे से तो अच्छा है। खैर..लिट्टी-चोखा खाके मन जुड़ा गोइल....
पर सड़कें बहुत खराब होने के कारण बसें चलनी भी कम हो गई हैं। लोगों ने बताया कि जोंगा मिलेगी। अब इ जोंगा का होला....जोंगा आर्मी से आक्सन की गई जीपे हैं। जो उबड़ खाबड़ में चलने के लिए अच्छी हैं। मैं अब किसी जोंगा के इंतजार में था। तब फुटपाथ पर लिट्टी चोखा खाने का आनंद उठाने की सोची। लकड़ी के कोयले पर लोहे की तार की जाली लगाकर छोटी-छोटी लिट्टी बनाकर बेचना हमारे इलाके का बड़ा प्यारा भोजन है। इसके साथ थोड़ा सा आलू-बैगन का चोखा मिलता है। यह समोसे, कुलचे या छोले भठुरे से तो अच्छा है। खैर..लिट्टी-चोखा खाके मन जुड़ा गोइल....
कुछ घंटा इंतजार करे के बाद एगो
जोंगा आईल....हम दउर के ओमे एगो आगे वाला सीट पर कब्जा कर लेहलीं। जोंगा वाला कहलस
गाड़ी पूरा भर जाई तबे चलब। खैर एक घंटा इंतजार करे के बाद जोंगा पूरा भर गोइल।
गाड़ी चले के रहे तब तक एगो आदमी अइलन...अरे रूक रूक...हमरो चले के बा...ड्राइवर
बोलल...आईं मलिकार...
सफेद पायजामा कुरता कान्ह पर
गमछी लेले उ आदमी पान खात अउर मोंछ पर ताव दे रहे...हम त आगे हीं बइठब....अब आगे
से एगो आदमी के हटा के पीछे भेजे के रहे। हमारा पहनावा-ओढ़ावा देखके हमारे के केहु
पीछे जाए के ना कहल पर एगो दोसर आदमी के पीछे जाए के पड़ल...अब जोंगा के ड्राइवर
सब केहू से भाड़ा वसूले लागल....तब उ पायजामा कुरता वाला बाबू कहलें ....हमरो से
पइसा मंगबे जान नइखस हम भोखरी गांव के बाबू साहेब हईं...तोरा डर-ओर नइखे लागत
का....जोंगा के ड्राइवर जैसे तइसे गाड़ी लेके चल पड़ल....गाड़ी चले पर बाबू साहेब
कहलें आरे गाड़ी में कैसेट पर गाना लगाव मनोरंजन होखो...ड्राइवर बोला...मलिकार
कैसेट मशीन खराब हो गोइल बा....फिर बाबू साहेब ने डांट पिलाई जल्दी मशीन ठीक
कर...ड्राइवर गाड़ी रोककर कैसेट प्लेअर ठीक करने लगा। प्लेअर ठीक नहीं हुआ....
बाकी सब यात्रियों को घर जाने
की जल्दी तो थी लेकिन सभी नाटक देख रहे थे। अब बाबू साहेब ने ड्राइवर को कहा..तुम
गाड़ी भी चलाओ और साथ में गाना भी गाओ...मैं बजाता हूं....मजबूरी में ड्राइवर ने
गाना शुरू किया.....नथुनिये प गोली मारे...ओ....नथुनिये प.....गाना सुन बाबू साहब
मस्तियाने लगे...और ताली पीट पीट कर म्युजिक देने लगे....बाकी लोगों का मनोरंजन
क्या हो रहा था...मैं ये ठीक ठीक नहीं बता सकता लेकिन धीरे-धीरे मंजिल की ओर लेकर
जा रही जोंगा कई बार उलटते उलटते उलटते बची....
खैर चलते चलते हमारे गांव का
निकटतम स्टाप आ गया..फुल्ली। यहां से तीन किलोमीटर पैदल का सफर...मैंने अपना
पीट्ठू बैग लगा लिया पीठ पर.. और आंखों में गागल्स चढ़ा लिया। सिर पर टोपी भी लगा
ली....जून की दोपहर थी..धूप तेज हो चली थी...कई साल बाद अपने ही गांव में जा रहा
था। उसी गांव में जहां छुटपना गुजरा.. हजारों बातें उसी तरह याद हैं जैसे लगता है
कल की ही तो बात हो...अब गांव तक जाने के लिए सड़क तो बन गई है पर अपना वाहन नहीं
हो तो आखिरी तीन किलोमीटर का सफर पैदल ही करना पड़ता है। पैदल चलते चलते कुछ और
लोग साथ थे उनसे बातें करने लगा।
एक बुजुर्ग को मैं पहचानने की
कोशिश कर रहा था। वे केदार साव थे। बगल वाले गांव के बनिया। वे मेरे दादा जी से
फसल कट जाने पर धान और गेहूं खरीदा करते थे। मैंने उन्हें पहचान लिया। बातों में
मैंने उन्हें बताया...हमार घर सोहवलिया ह...परिचय देने पर उन्होंने जाना...अच्छा त
तू परयाग के नाती हव...कहवां बाड़...हम बतवनी की अबगे तक तक बीएचयू में पढ़त रनी
हा...अब जातानी दिल्ली...जर्नलिज्म पढ़े....जर्नलिज्म माने का भइल हो...अखबार के
पढ़ाई...अच्छा तब त ठीक बा..
![]() |
गांव में दादाजी का बनवाया शिव मंदिर |
खैर बातों बातों में गांव आ
गया...गांव के एक दादा खेतों में काम करते दिखे...हम त चिन्ह लेनी...उ शामलाल दादा
रहन...दउड़ के पांव लगनी..पर उ ना चिन्हल...खैर हम आपन परिचय देनी....जान के दादा
के चेहरा पर आइल मुस्कान कबो ना भुलाए जोग रहे। मूल त मूल सूद के आगे बढ़त देख के
बुजुर्ग लोग के बाड़ा खुशी होखे ला।
गांव में घर जाए से पहिले अपना
दलान पहुंचनी...शंकर जी का मंदिर जो मेरे छोटे दादा विश्वनाथ सिंह ने बनावा था
वहां जाकर शीश झुकाया। अब मेरे इस गांव में मेरे परिवार का कोई नहीं रहता। सन 1980 से हमलोग गांव छोड़ चुके हैं। मम्मी-पापा भाई बहन तो बाहर हैं। दादा दादी कबके गुजर गए। मेरे घर में ताला लगा है।
मैं एक बार फिर जा पहुंचा मंदिर की सीढ़ियों पर और बैठकर सोचने लगा अब आगे किसके
घर जाऊं।
-विद्युत
प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com ( जून, 1995 का सफर )
( SOHWALIA DAYS 1, KUDRA, KARGHAR, ROHTAS, BIAHR)
वाह भाई जी, हमर घर भोखरी बा
ReplyDeleteThis comment has been removed by a blog administrator.
Deleteधन्यवाद, कभी बात करें. मेरा ईमेल - vidyutp@gmail.com है...
Delete