रोटियां तो कई तरह
की खाई होंगी आपने लेकिन अलीगढ़ में बनती है डनलप ब्रेड। यानी रोटी किसी रबर की
तरह खींचो तो खिंचती चली जाती है। हमें ऐसी रोटियों से साक्षात्कार का मौका मिला सितंबर 1991
में जब मैं राष्ट्रीय युवा योजना यानी एनवाईपी के शिविर में तालों के शहर अलीगढ़ में पहुंचा। यह एनवाईपी में महान गांधीवादी एसएन सुब्बराव के सानिध्य में मेरा पहला राष्ट्रीय
शिविर था।
यह शिविर अलीगढ़ में हुए दंगों के कुछ महीनों बाद लगा था। सात दिन का यह शिविर 18 से 25 सितंबर के मध्य, सांप्रदायिक सदभावना को लेकर केंद्रित था। मैं वाराणसी से छह सदस्यीय दल के साथ इस शिविर में पहुंचा था। अलीगढ़ जाने से पहले मेरा लंबी रेलयात्रा का कोई अनुभव नहीं था। बस सोनपुर से वाराणसी आया जाया करता था। आनंद वर्धन जी ने सलाह दी कि अलीगढ़ जाने के लिए गंगा जमुना एक्सप्रेस ठीक रहेगी। यह ट्रेन तब वाराणसी से नई दिल्ली चलती थी इसलिए नाम था गंगा जमुना। बाद में इसका विस्तार दानापुर से भिवानी तक हो गया। इसके बाद फरक्का से भिवानी चलने लगी तो इसका नाम फरक्का एक्सप्रेस हो गया। गंगा जमुना एक्सप्रेस से सुबह सुबह हमलोग अलीगढ़ रेलवे स्टेशन पर उतरे। वहां से रिक्शा लेकर नुमाइश ग्राउंड पहुंचे।
यह शिविर अलीगढ़ में हुए दंगों के कुछ महीनों बाद लगा था। सात दिन का यह शिविर 18 से 25 सितंबर के मध्य, सांप्रदायिक सदभावना को लेकर केंद्रित था। मैं वाराणसी से छह सदस्यीय दल के साथ इस शिविर में पहुंचा था। अलीगढ़ जाने से पहले मेरा लंबी रेलयात्रा का कोई अनुभव नहीं था। बस सोनपुर से वाराणसी आया जाया करता था। आनंद वर्धन जी ने सलाह दी कि अलीगढ़ जाने के लिए गंगा जमुना एक्सप्रेस ठीक रहेगी। यह ट्रेन तब वाराणसी से नई दिल्ली चलती थी इसलिए नाम था गंगा जमुना। बाद में इसका विस्तार दानापुर से भिवानी तक हो गया। इसके बाद फरक्का से भिवानी चलने लगी तो इसका नाम फरक्का एक्सप्रेस हो गया। गंगा जमुना एक्सप्रेस से सुबह सुबह हमलोग अलीगढ़ रेलवे स्टेशन पर उतरे। वहां से रिक्शा लेकर नुमाइश ग्राउंड पहुंचे।
रोटी चबाना था मुश्किल - सात दिनों के अलीगढ़ शिविर में रोज खाने में मिलती थी ऐसी ही डनलप ब्रेड।
हालांकि ये रोटी तंदूर में ही बनती है लेकिन इसके आटे का प्रिपरेशन ऐसा होता है कि
वह रबर की तरह खींचती जाती है। चबाना थोड़ा मुश्किल होता था लेकिन देश कोने कोने
से आए कार्यकर्ता इस रोटी को देखकर अचंभित थे।
खाने के समय हम शिविरार्थियों के बीच रोटी की बनावट को लेकर मीठी मीठी बहस होती थी। गाजियाबाद की कुमारी सुंदरी डोगरा बताती हैं कि रोटी तो हमारे एटा में सबसे अच्छी बनती है, तो कश्मीर के सुदेश के लिए रोटी चबाना मुश्किल होता था। हमारा शिविर अलीगढ़ के नुमाइश ग्राउंड में लगा था। सात दिनों में हमलोगों ने पूरे शहर में सांप्रदायिक सदभाव के लिए कई रैलियां की। 1990 में अलीगढ़ शहर में भीषण दंगा हुआ था। दिसंबर 1990 के इन दंगों में तीन दिन में 93 लोगों की मौत हो गई थी। हमारे शिविर में अलीगढ़ की स्थानीय लोगों की संस्था अलीगढ़ फॉर लाइफ एंड हारमोनी भी सहयोग दे रही है।
मैं रविंद्र संगीत की कक्षा में - अलीगढ़ शिविर में हर रोज दोपहर में टैलेंट एक्सचेंज की कक्षा होती थी। इसमें मैंने बंगाली लोगों के सानिध्य में रविंद्र संगीत सीखना शुरू किया। दरअसल कोलकाता के पास बारुइपुर से आए एक सज्जन रविंद्र संगीत की कक्षा ले रहे थे। उनसे प्रभावित होकर हमने कुछ सुर सीख भी लिए - से दिन दु जोने दुले छिनू बोने, फूलो डोरे बांधा झूलो ना...
हमारे गुरु जी की बहन शुभ्रा दास थी जो हमें संगीत सीखाने में मदद करती थी। शुभ्रा खुद पुरानी हिंदी फिल्मों के गीत गाकर सुनाती। वह फिल्म कठपुतली की गीत गाती- जो तुम हंसोगे तो दुनिया हंसेगी। रोओगे तुम तो रोएगी ना दुनिया... शुभ्रा बीएएमएस की छात्रा थी। वह अब तो कहीं डॉक्टर बन गई होगी। शुभ्रा के साथ एक और लड़की थी सुश्मिता मंडल। उनके भाई एक पत्रिका निकालते बांग्ला में नाम था - कन्याकुमारीका पत्रिका।
खाने के समय हम शिविरार्थियों के बीच रोटी की बनावट को लेकर मीठी मीठी बहस होती थी। गाजियाबाद की कुमारी सुंदरी डोगरा बताती हैं कि रोटी तो हमारे एटा में सबसे अच्छी बनती है, तो कश्मीर के सुदेश के लिए रोटी चबाना मुश्किल होता था।
मैं रविंद्र संगीत की कक्षा में - अलीगढ़ शिविर में हर रोज दोपहर में टैलेंट एक्सचेंज की कक्षा होती थी। इसमें मैंने बंगाली लोगों के सानिध्य में रविंद्र संगीत सीखना शुरू किया। दरअसल कोलकाता के पास बारुइपुर से आए एक सज्जन रविंद्र संगीत की कक्षा ले रहे थे। उनसे प्रभावित होकर हमने कुछ सुर सीख भी लिए - से दिन दु जोने दुले छिनू बोने, फूलो डोरे बांधा झूलो ना...
हमारे गुरु जी की बहन शुभ्रा दास थी जो हमें संगीत सीखाने में मदद करती थी। शुभ्रा खुद पुरानी हिंदी फिल्मों के गीत गाकर सुनाती। वह फिल्म कठपुतली की गीत गाती- जो तुम हंसोगे तो दुनिया हंसेगी। रोओगे तुम तो रोएगी ना दुनिया... शुभ्रा बीएएमएस की छात्रा थी। वह अब तो कहीं डॉक्टर बन गई होगी। शुभ्रा के साथ एक और लड़की थी सुश्मिता मंडल। उनके भाई एक पत्रिका निकालते बांग्ला में नाम था - कन्याकुमारीका पत्रिका।
रैलियों के दौरान सुब्बाराव जी के भजन और गीतों का लोगों में अदभुत प्रभाव
पड़ता था। इस शिविर में हमारी मुलाकात केरल के के सुकुमारन से हुई जो जादू भी
दिखाते थे। आंध्र प्रदेश के घंटानारायण,
असम से मानिक हजारिका, श्री मोहन शुक्ला जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले से सुदेश कुमारी जैसे पुराने कार्यकर्ताओं से भी परिचय हुआ।
हमारा नारा था- अलीगढ़ हो या गुवाहाटी, अपना देश अपनी माटी।
शिविर में अलीगढ़ के तब के विधायक कृष्ण कुमार नवकान, सांसद
शीला गौतम अक्सर आती थीं। तब अलीगढ़ के जिलाधिकारी थे अरुण कुमार मिश्र। वे भी
हमारा उत्साहवर्धन करने हर रोज मिलते थे।
एक दिन हमारा शाम का सर्वधर्म प्रार्थना
का कार्यक्रम अलीगढ़ के अपर कोर्ट मस्जिद इलाके में था। इलाका थोड़ा संवेदनशील था।
हमें कार्यक्रम जल्दी खत्म करना पड़ा। लेकिन अलीगढ़ के डीएम ने कहा कि देश भर से
आए युवाओं ने अलीगढ़ में कार्यक्रम कर जो संदेश देने की कोशिश की है। उसका अच्छा
असर हुआ है।

तालों का शहर अलीगढ़ - वैसे अलीगढ़ शहर तो प्रसिद्ध है ताले के लिए। देश की प्रमुख ताला फैक्ट्रियां यहां है। बल्कि ताले
यहां कुटीर उद्योग में बनाए जाते हैं। हालांकि भौगोलिक बनावट के कारण साफ सुथरा
शहर नहीं है। शहर की बनावट कटोरे जैसी है। लिहाजा बारिश का पानी बाहर नहीं निकल
पाता। हमारे शिविर में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के शिक्षक और छात्रों का दल
भी आता था।
मेरा तब एएमयू का एक दोस्त बना था मानूस मिर्जा नियाजी। पता नहीं अब वह कहां होगा। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हमारे साथ इस शिविर में गए थे बिपिन चंद्र चतुर्वेदी , अजय कुमार और काशी विद्यापीठ के ओमहरि त्रिपाठी। शिविर के दौरान हमने दो लघु नाटिकाएं तैयार करके पेश कीं। एक दंगों पर आधारित थी तो दूसरी शराब की बुराइयों पर। शराब वाली नाटिका अभिनय करने के लिए मैंने अपनी मूंछे साफ करा लीं क्योंकि मुझे एक बच्चे का रोल करना था। हालांकि बाद में मूंछे साफ कराने पर लोगों ने तरह तरह से काफी मजाक उड़ाया।
ताजमहल का दीदार - अलीगढ़ शिविर के दौरान ही हमलोग एक दिन ताजमहल के दर्शन करने गए। अलीगढ़ से हमें बसों से ताजमहल ले जाया गया। इसके लिए हमें कुछ शुल्क देना पड़ा जो काफी रियायती था। हालांकि सितंबर महीने में भी आगरा में गर्मी काफी थी। पर विश्व विरासत में शुमार ताजमहल का पहली बार दीदार करना काफी सुखद अनुभव था।

25 सितंबर को शिविर का समापन समारोह हुआ। ढेर सारी मीठी यादें लेकर हमलोग अलीगढ़ के नुमाइस मैदान से विदा हुए। वैसे अलीगढ़ शहर के नुमाइस मैदान में हर साल लगती है नुमाइस और इस नुमाइस का प्रसिद्ध डिश है हलवा पराठा। अलीगढ़ शहर के बारे में और जानने के लिए क्लिक करें - http://www.aligarhcity.in/
- - विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com
( ( ALIGARH, COMMUNAL HARMONY CAMP, NYP, UPPER COURT, AMU, SHEELA GAUTAM MP)
( REF - http://www.nytimes.com/1990/12/10/world/muslim-hindu-riots-in-india-leave-93-dead-in-3-days.html )
Wow good website, thank you.
ReplyDeleteBlue Colour With Red Background Chandua
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