पटना में गंगा में स्टीमर |
तब उत्तर बिहार के सोनपुर और दक्षिण बिहार के पटना के मध्य स्टीमर चलती थी गंगा नदी में। अपने गांव सोहवलिया से वैशाली जिले के कन्हौली तक जाते और आते हुए हमें हर बार गंगा नदी को स्टीमर से पार करना पड़ता था। ऐसी ही एक एक
स्टीमर यात्रा के क्रम में पिताजी के एक मित्र मिल गए। उनके साथ उनकी पुत्री भी थी
श्वेता। ( ऐसा ही कुछ नाम था उसका ) बातों बातों में पिताजी के दोस्त ने कहा, चलिए कैंटीन में चलकर चाय पीते हैं...मैं गांव से नया-नया आया था..चीनी मिट्टी की प्लेट और प्याली में चाय पीने का अभ्यस्त बिलकुल नहीं था।
लिहाजा पहली चुस्की लेने में ही मुंह जल गया। श्वेता मेरी ओर देखकर मुस्कराई। मैं
विचलित हो अपने स्थान से हिला और चाय की बूंदे गिरीं मेरे कपड़ों पर।
आगे बढ़कर उसने मेरे कपड़ों से चाय की बूंदों को साफ करते हुए कहा – गरम चाय ऐसे नहीं पीते।
पहले थोड़ी सी चाय प्याली में ढ़लकाते हैं, फिर उसे फूंक मार कर ठंडा करके पीते
हैं। मैं मंत्रमुग्ध सा कभी उसका चेहरा देखता कभी उसका चाय पीना देखता रहा। बहरहाल हमलोग चाय
पीते-पीते स्टीमर के लाउंज पर आ गए। मैं अचानक बोल उठा- ‘देखो देखो पानी पीछे भाग रहा है।‘ श्वेता बोल पड़ी - ‘नहीं बुद्धू, हमारा जहाज आगे जा रहा है।
स्टीमर से पटना उतरने तक हमलोग अच्छे दोस्त बन चुके थे। यह सुखद
संयोग ही रहा है कि आगे की रेलयात्रा में भी हमलोग साथ-साथ चलने वाले थे। श्वेता
अपनी उम्र के अनुसार बहुत तेज तर्रार और चालक थी बार-बार मेरी भोली भाली बातों और
सहज अज्ञानता पर हंस पड़ती। मेरे समान्य ज्ञान में अभिवृद्धि के प्रयास में लग
जाती। उसके खिलखिलाने के साथ उसकी मुखमुद्रा में विराजमान श्वेत, धवल
दंत पंक्तियां, विद्युत रश्मि बिखेरते प्रतीत होते। मेरे उपर तो जादू सा होता चला जा रहा
था।
रेलगाड़ी में हमने खिड़की के पास आमने सामने की जगह चुनी। पिताजी और उनके दोस्त अपनी बातों में लगे थे और हमलोग अपनी बातों में। पिताजी के मित्र ओशो के शिष्य थे। दोनों आध्यात्म पर बातें करने लगे। इस बीच रेल की
छुक छुक पीछे भागते पेडों के मध्य हमारा और श्वेता का परिचय और प्रगाढ़ होता रहा।
श्वेता ने पूछा - कौन से वर्ग में पढते हो? तीसरी में। और तुम - चौथी में । क्या खाना अच्छा लगता है...क्या तुम्हारे टीचर जी ने कभी तुम्हें मुर्गा
बनाया... मैं बोल पड़ा- मुर्गा...हमारे टीचर जी को हमें गधा कहते हैं। पिता जी
गुस्से में होते हैं तो बैल तक कह डालते हैं।
फिर वह खिलखिलाकर हंस पड़ी। अचानक रेल एक पुल से गुजरी। देखो ये फल्गु नदी है। इसको न राजा दशरथ जी का शाप लगा हुआ है। साल भर नदी सूखी रहती है। लेकिन इसके अंदर-अंदर पानी बहता रहता है। अगर इसको खोदोगे न, तो पानी निकलेगा। श्वेता के ये शब्द मेरे मानस पटल में हमेशा के लिए अंकित हो जाते हैं - देखो ये फल्गु नदी है। अगर इसको खोदोगे न, तो पानी निकलेगा। ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो।
फिर वह खिलखिलाकर हंस पड़ी। अचानक रेल एक पुल से गुजरी। देखो ये फल्गु नदी है। इसको न राजा दशरथ जी का शाप लगा हुआ है। साल भर नदी सूखी रहती है। लेकिन इसके अंदर-अंदर पानी बहता रहता है। अगर इसको खोदोगे न, तो पानी निकलेगा। श्वेता के ये शब्द मेरे मानस पटल में हमेशा के लिए अंकित हो जाते हैं - देखो ये फल्गु नदी है। अगर इसको खोदोगे न, तो पानी निकलेगा। ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो।
अचानक अगले स्टेशन पर रेलगाड़ी धीमी होकर रूकती चली गई। गया जंक्शन
आ गया था। यहां से हमारे और पिताजी के दोस्त के रास्ते अलग अलग होने वाले थे। श्वेता अपने पिताजी के साथ उतर गई। उतरते हुए एक चॉकलेट थमा गई। प्यार
की मिठास भरी। उसके आखिरी शब्द थे...गुड बाय... फिर मिलेंगे। इसके बाद मैंने इसी मार्ग पर रेल और स्टीमर से कई यात्राएं की। पर जहाज और रेल की यात्रा में उस छोटी सी मुलाकात की यादें आज भी जेहन में रची बसी हैं। परंतु उसका जाते जाते हाथ हिलाकर कहना कहना कि फिर मिलेंगे। वह ‘फिर’ कभी लौटकर नहीं आया।
- -विद्युत प्रकाश मौर्य - ईमेल - vidyutp@gmail.com
( प्रकाशित - नवभारत टाइम्स, 20
दिसंबर 1995 )
(( TRAVEL, BIHAR, RAIL, GAYA, FALGU RIVER, SHORT STORY ))
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