अलीगढ़ का
शिविर खत्म होने के बाद हमारी दिल्ली घूमने की तमन्ना थी। अब दिल्ली के इतने करीब
आ गए हों तो दिल्ली जाने की इच्छा तो थी ही। बंगाल से आए साथी भी दिल्ली और
हरिद्वार घूमना चाहते थे। तो मैं और विपिन चतुर्वेदी और हमारी टीम के दूसरे साथी
दिल्ली पहुंचे। अलीगढ़ से दिल्ली की यात्रा हमने बस से की। गाजियाबाद शहर आते ही
दिल्ली की भीड़भाड़ और यहां के प्रदूषण से सामना हुआ। सुब्बराव जी ने हमें अलीगढ़
शिविर में ही दिल्ली जाने का तरीका बता दिया था। तब दिल्ली में प्रवेश करने वाली
बसें आईटीओ पुल से आती थीं। हमलोग बस से आईटीओ पर ही उतर कर रिंग रोड से होते हुए
राजघाट पहुंचे।
यहां हमलोग रुके राजघाट के सामने गांधी दर्शन में, जहां लोक सेवक मंडल का दक्षिण एशियाई शिविर लगा हुआ
था। इसी शिविर में दो दिन हम रहे। हांलाकि इस शिविर में हमारे रहने का इंतजाम नहीं
था। हमलोग यहां घुसपैठिये की तरह ही रहे। यहां खाने के लिए कूपन का व्यवस्था थी।
संयोग से
यहां मेरी एक बार फिर डाक्टर एके अरुण से मुलाकात हुई, जो
मुजफ्फरपुर से आए थे। डाक्टर अरुण से मैं वैशाली महोत्सव और मुजफ्फरपुर में मिल
चुका था। उनके साथ नीलू अरुण भी थीं, जो बाद में उनकी
धर्मपत्नी बनीं। उन्होंने अपने कूपन से हमे शिविर में भोजन कराया। इसी गांधी दर्शन
में एक साल बाद फिर आना हुआ एनवाईपी की कार्यकर्ता बैठक में।

बस से दिल्ली दर्शन - 1991 में यह मेरी पहली दिल्ली यात्रा थी। तो दिल्ली घूमने की भी तमन्ना थी।

बस से दिल्ली दर्शन - 1991 में यह मेरी पहली दिल्ली यात्रा थी। तो दिल्ली घूमने की भी तमन्ना थी।
इसी दौरान मैं और विपिन
दिल्ली घूमे टूरिस्ट बस में। हालांकि तब फटफट सेवा वाले भी दिल्ली दर्शन कराते थे,
पर हमने टूरिस्ट बस से सफर करना तय किया। ये बसें लालकिला से आरंभ
होती थीं। बस में सवार होने से पहले लालकिला देखा। गरमी लग रही थी तो लाल किले के
अंदर कोल्ड ड्रिंक पी शेयर करके। दिल्ली दर्शन बस ने राजघाट के आसपास की समाधियों
के बाद हमें इंडियागेट, लोटस टेंपल, कुतुबमीनार, सफदरजंग रोड पर पूर्व
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का आवास आदि घुमाया। संक्षेप में दिल्ली घूमने के लिए
ये पैकेज अच्छा लगा। तब बस का शुल्क था 50 रुपये। आज भी डीटीसी की बस दिल्ली दर्शन
कराती है। उसका रुट सिंधिया हाउस (कनाट प्लेस) से आरंभ होता है। दिल्ली दर्शन से
लौटने के बाद शाम को हमलोग चांदनी चौक के बाजार में घूमे। वहां तब गजब का मोलभाव
था, खासतौर पर फुटपाथ के बाजार में। एक बार दर पूछ तो बेचने
वाले पीछे ही पड़ जाते थे।
वाराणसी के लिए वापसी
दिल्ली से वाराणसी तक वापसी की यात्रा टुकड़ों में हुई। पहले मुरादाबाद तक किसी ट्रेन से पहुंचे, फिर वहां से देहरादून हावड़ा एक्सप्रेस से वाराणसी तक का सफर पूरा हुआ। हमारे पास वापसी का भी रियायती पास था। पर जनरल डिब्बे में भीड़ बहुत थी। हम स्लीपर में बर्थ लेना चाहते थे, हमारे कुछ साथी तैयार नहीं हुए पर मैंने और बिपिन भाई ने टीटीई से आग्रह करके 20-20 रुपये देकर दो बर्थ ले लिए। इस तरह हमारा वाराणसी तक का सफर आराम से सोते हुए गुजरा। वह सितंबर 1991 का आखिरी दिन था जब हम वाराणसी वापस लौटे।
दिल्ली से वाराणसी तक वापसी की यात्रा टुकड़ों में हुई। पहले मुरादाबाद तक किसी ट्रेन से पहुंचे, फिर वहां से देहरादून हावड़ा एक्सप्रेस से वाराणसी तक का सफर पूरा हुआ। हमारे पास वापसी का भी रियायती पास था। पर जनरल डिब्बे में भीड़ बहुत थी। हम स्लीपर में बर्थ लेना चाहते थे, हमारे कुछ साथी तैयार नहीं हुए पर मैंने और बिपिन भाई ने टीटीई से आग्रह करके 20-20 रुपये देकर दो बर्थ ले लिए। इस तरह हमारा वाराणसी तक का सफर आराम से सोते हुए गुजरा। वह सितंबर 1991 का आखिरी दिन था जब हम वाराणसी वापस लौटे।
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विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com ( NYP, DELHI, GANDHI DARSHAN, RAJGHAT, BIPIN CHNDRA, BHU )
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